श्री श्री
रविशंकर की आर्ट ऑफ़ लिविंग द्वारा आयोजित विश्व सांस्कृतिक उत्सव का आयोजन 11
मार्च से 13 मार्च तक दिल्ली में पूर्वी यमुना किनारे किया जा रहा है. इसका आयोजन
आर्ट ऑफ लिविंग के 35 वर्ष पूरे होने उपलक्ष में किया जा रहा है और वास्तव में आर्ट
ऑफ लिविंग और इसके अनुयायियों के लिए उत्सव जैसा है . आर्ट ऑफ लिविंग, लोगों को
शांत और खुश होकर जीने की कला सिखाता है,
तनाव को दूर करता है, और
व्यक्ति खुशहाल रह सकता है. चूँकि इन सबसे व्यक्ति की उत्पादकता भी बढती है इसलिए लगभग सभी बड़े कॉर्पोरेट अपने कर्मचारियों को आर्ट ऑफ लिविंग के कोर्स कराते
है. स्वाभाविक है आर्ट ऑफ लिविंग के अनुयायियों की एक बहुत बड़ी संख्या है. विश्व
के लगभग हर बड़े शहर में आर्ट ऑफ़ लिविंग के आयोजन हए हैं. हिंदुस्तान का एक बहुत बड़ा समूह आर्ट ऑफ लिविंग
से प्रशिक्षित और प्रभावित है. अब जब आयोजन का समय बहुत नजदीक आ गया है, कुछ पर्यावरण
विद और संस्थाएं इस आयोजन के विरोध में खड़े हो गए हैं. मामला नेशनल ग्रीन
ट्रिब्यूनल में चल रहा है. आज भी इसकी
सुनवाई होगी. पक्ष और विपक्ष में दलीलें होगी लेकिन अहम् प्रश्न है कि क्या यह आयोजन हो सकेगा ?
इस आयोजन का
उद्देश चाहे जो भी हो लेकिन कम से कम राष्ट्र और मानवता के विरुद्ध तो नहीं हो
सकता. इस आयोजन में कई देशों के कलाकार भाग लेंगे और भारत के विभिन्न राज्यों की
संस्कृतियों प्रस्तुत करने के अलावा विभिन्न समुदायों और विभिन्न धर्मों के लोग मिलेंगे बैठेंगे और विश्व
शांति के लिए रास्ता खोजेंगे. कुल मिलाकर देखा जाए तो यह ऐसा दुर्लभ आयोजन है जो भारत
भूमि पर होगा और भारतवासियों को उपलब्ध होगा. हम शामिल हो पाएं या नहीं पर टीवी चैनलों
के माध्यम से कम-से-कम सभी भारतवासियों को इस का लाभ मिल सकता हैं. आजकल भारत में प्रचलन हो गया है हर अच्छे काम का विरोध करना. और उस
के पक्ष विपक्ष में पूरे हिंदुस्तान को बांटने की कोशिश करना. गनीमत यह है कि यह
मामला सिर्फ पर्यावरण से जोड़ा गया है इसमें धार्मिक मानसिकता का समावेश नहीं किया गया है . यह
अच्छी बात है कि पर्यावरण के लिए पूरा विश्व सजग है और हम भी उस में सहयोग कर रहे हैं लेकिन कुछ
पर्यावरण विद और उनके कार्यकर्ता ऐसा काम
करते हैं जिससे जनमानस के बहुत बड़े वर्ग में कसमसाहट होती है. सभी जानते हैं पर्यावरण
विश्व की समस्या है और बहुत बड़ी समस्या है लेकिन इस समस्या को खड़ा करने में
कम-से-कम भारत का बहुत बड़ा योगदान नहीं है क्योंकि जो कार्य विकसित देशो ने कम
समय में कर दिया है वह भारत कम-से-कम अगले
50 साल में भी नहीं कर सकता है. हमें देखना होगा कि इस तरह के आयोजन से पर्यावरण
का कैसा और कितना नुकसान हो जाता है और जिस प्रकार के तर्क और कुतर्क इस आयोजन के
विरोध में दिये जा रहे हैं साधारण जनमानस को समझ में नहीं आ सकते . अमेरिका सहित विश्व के किसी भी देश में अगर इस तरह का आयोजन
होता तो उस देश के लिए गौरव की बात होती लेकिन हिंदुस्तान में हम लोग अभ्यस्त हो
गए है कि हर अच्छे काम का विरोध होता है. यहां
तक बड़े तीज त्योहारों का भी विरोध होता
है दिवाली पर पटाखे ना छोड़ने की अपील होती है. कितने शक्ति के पटाखे चलाए जाएं
निर्णय किये जाते हैं इस पर रोक लगाई जाती है. होली पर पानी कितने समय उपलब्ध हो यह निश्चित किया जाता
है. होली जलाने में लकड़ी और आदि का जो प्रयोग किया जाता है इस पर भी तमाम विरोध होता
है पर्यावरण के नाम पर. बहुत बड़े यज्ञ और हवन के विरोध में भी आवाजे आती हैं.
शायद सभी जानते
है भारत की जीवन पद्धति आद्र पद्धति है और आदिकाल से सभी आयोजन नदियों, जलाशयों और सरोवरों के किनारे
होते आये हैं . कुम्भ, अर्ध कुम्भ सहित तमाम आयोजन नदियों के किनारे होते है और करोड़ों की
संख्या में लोग भाग लेते हैं. आज अगर इस तरह के आयोजन के विरुद्ध आवाज उठाई जा रही
है तो कल कुंभ और अर्ध कुंभ के आयोजन पर भी प्रतिबंध प्रतिबंध लगाया जा सकता है. हो
सकता है कि सरकारी औपचारिक्ताये पूरी न हुयी हों पर भारत के एक बड़े वर्ग को इससे
वंचित नहीं किया जाना चाहिए.
आशा है ये आयोजन जरूर होगा .
आशा है ये आयोजन जरूर होगा .
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शिव प्रकाश
मिश्रा
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