Tuesday, 24 November 2015
आमिर भी दंगल में........... या दलदल में ........
*********************************** शिव प्रकाशमिश्रा
Friday, 20 November 2015
बिहार में बहार
श्री नीतीश कुमार द्वारा मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण करने के साथ बिहार में बहार आ गई. जेडीयू द्वारा बीजेपी से संबद्ध संबंध विच्छेद करने के बाद बिहार में बहुत ही असमंजस पैदा हो गया था और लगातार अनिश्चय की स्थिति बनी हुयी थी. चुनाव प्रचार से लेकर चुनाव पूर्व सर्वेक्षण, मतदान से लेकर इक्सिट पोल और अंतिम मतगणना तक लगातार सस्पेंस बरकरार रहा. जो चुनाव परिणाम सामने हैं, उनमे एक संदेश है जो आसानी से नहीं समझा जा सकता है . ऊपर से देखा जाए तो यह महा गठबंधन की महाविजय है और बीजेपी की जबरदस्त हार है. पर चुनाव परिणाम की विस्तृत विवेचना से पता चलता है की बिहार में सिर्फ और सिर्फ लालू प्रसाद यादव की ही जीत हुई है और बाकी सभी हार गए. चाहे वह मुख्यमंत्री बनने वाले नितीश कुमार हों, देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या फिर अध्यादेश फाड़ने वाले राहुल गांधी हो.
पूर्व विधानसभा में नितीश कुमार के 112 विधायक थे और बीजेपी के 94 , ( दोनों पार्टियों के गठबंधन के पास कुल २०६ विधायक थे, आज महा गठबंधन के पास १७८ सीट हैं ), आरजेडी के पास २२ और कांग्रेस के पास ४ विधायक थे . नयी विधान सभा में तमाम सुशासन और अच्छी छवि के बावजूद नितीश की जेडीयू को ७१ सीट प्राप्त हुयी जो पहले से ४१ कम हैं. बीजेपी को ५३ सीट मिली हैं जो भी पहले से ४१ कम हैं. अत: दोनों ही पराजित हुए हैं. आरजेडी को ८० सीटें और वह विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी (पहले से ५८ ज्यादा) और नीतीश कुमार की पार्टी विधानसभा में नंबर 2 की पार्टी होगी और भारतीय जनता पार्टी नंबर 3 पर चली गई है ( दोनों ही एक एक पायदान नीचे ). मगर किसी को सबसे अधिक नुकसान हुआ तो वह हैं नितीश कुमार है जो पहले प्रधान मंत्री मैटीरियल थे अब मुख्यमंत्री मैटीरियल बने रहने के लिए लालू प्रसाद यादव की कृपा पर निर्भर हैं. सही मायने में बिना लालू प्रसाद यादव के, वह पत्ता भी नहीं हिला सकते.
आज के शपथ ग्रहण समारोह से जिसमें लालू के बेटे को मुख्यमंत्री बनाया गया है, इस साबित हो गया है नीतीश कुमार की आगे की राह बहुत आसान नहीं है. तकनीकी तौर पर देखा जाए तो विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी आरजेडी को मुख्यमंत्री पद मिलना चाहिए था लेकिन लालू प्रसाद यादव ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद देकर उन पर बहुत बड़ा एहसान किया है. नीतीश कुमार इन अहसानों के तले दबे हुए काम करेंगे . उनके पास इतनी शक्ति और सामर्थ्य भी नहीं होगी कि अगर कुछ गलत हो रहा है तो उसे रोक सके और सुशासन कायम कर सकें. इस बीच लालू के दोनों बेटों को ट्रेनिंग मिलेगी और सत्ता में आगे बढ़ने का हौसला मिलेगा और यह उपमुख्यमंत्री अगले 1 या 2 साल बाद मुख्यमंत्री की दावेदारी कर सकता है और हो भी सकता है. लालू यादव के पास 80 कांग्रेस के पास 27 मिलाकर बिना नितीश के सरकार बनाने के लिए सोलह विधायकों की जरूरत है और यह काम बड़े आराम से लालू यादव कर सकते हैं . ऐसा भी हो सकता है कि भारत के अगले आम चुनाव 2019 में नितीश को विपक्ष के प्रधानमंत्री के चेहरे के रुप में प्रस्तुत किया जाय . इस तरह से लालू यादव का काम आसान हो जाएगा.
कहते है कि लोकतंत्र
में जनता को वही सरकार मिलती है जिसकी वह हकदार होती है, शायद बिहार में यही हुआ
है. एक और नयी चीज बिहार चुनाव परिणामों से निकल कर आयी है कि तमाम राजनैतिक दल और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल जितना महागठबंधन की जीत से खुश नहीं हैं उतने भाजपा की हार से खुश हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण ऐसे बहुत लोग भाजपा में भी हैं।
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Wednesday, 21 October 2015
आप सभी को विजय दशमी की हार्दिक शुभ कामनाएं
मा दुर्गा के मंत्र
१.
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः .
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणिता:स्मताम
..
२.
या देवी सर्व भूतेषु लक्ष्मीरुपेण संस्थिता
.
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ..
३.
या देवी सर्व भूतेषु बुद्धिरुपेण संस्थिता
.
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः
४.
या देवी सर्व भूतेषु मातृरुपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः
५.
जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी.
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा
स्वधा नामेस्तु ते..
६.
देहि सौभाग्यमारोग्यम देहि में परम
सुख़म .
रुपम देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ..
७.
सर्व मंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके .
शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणि नमोस्तु ते ..
८.
सर्व बाधा विनुर्मुक्तो धन धान्य
सुतान्वित:
मनुष्यों मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय: ..
९.
शरणागत दीनार्त परित्राण परायणे .
सर्वस्यर्तिहरे देवि नारायणि नमोस्तु ते ..
१०.
सर्वबाधाप्रश्मनं त्रिलोक्यस्याखिले
श्वरि .
एवमेव त्वया यर्मस्मद्वैरि विनाशनम ..
*******शिव प्रकाश मिश्रा ***********
Tuesday, 20 October 2015
हिंदुस्तान का मुंह काला कर रहे है तथाकथित बुद्धिजीवी !
तस्लीमा नसरीन ने अभी हाल में दिए अपने
इंटरव्यू कहा कि हिंदुस्तान में यह एक
फैशन हो गया है जो लोग धर्म निरपेक्ष होते है (या कहलाते हैं ) वह हिंदुओं के
विरुद्ध होते है. उनका इंटरव्यू साहित्यकारों
द्वारा वापस किए जा रहे साहित्य अकादमी पुरस्कारों के परिपेक्ष में था. उन्होंने कहा
जब पश्चिम बंगाल में उनकी किताब पर प्रतिबन्ध लगाया गया और राज्य से बाहर कर दिया गया तो उन्हें दिल्ली आकर रहना पड़ा था. कट्टर
पंथियों के दबाव में उन्हें हिंदुस्तान भी
छोड़ना पड़ा, उस समय कम से कम साहित्यकारों ने तो कोई आवाज नहीं उठाई.
अब तक लगभग 24 साहित्यकार अपने
पुरस्कार वापस कर चुके है . और तो और मोहान की पतली पगडंडी से चल कर हजरतगंज पहुँचने
वाले अपने प्रिय मुनव्वर राना भी उसी श्रेणी में गिर चुके है. और न जाने कितने लोग
गिरेंगे ? और कितना गिरेंगे ? इन्हे नहीं मालूम जो ये काम कर रहे है, उससे विदेशों
में भारत की छवि कितनी खराब हो रही है ? पुरुस्कार
वापसी का सिलसिला कुलवर्गी जैसे लेखक की ह्त्या से शुरू होकर अख़लाक़ की हत्या से
जुड़ गया. अब तो पाकिस्तान ने भी कहना शुरु कर दिया है कि हिंदुस्तान में मुसलमानो
के साथ बहुत अत्याचार किया जा रहा है. इसका जबाब तो हिन्दुस्तान का मुसलमान ही दे
सकता है और उन्हें पाक को कड़ा सन्देश देना चाहिए.
पकिस्तान और उनके समर्थको की जानकारी
के लिए ये बताना उचित होगा पाकिस्तान में हिंदू अल्पसंख्यक हैं जिनकी जनसंख्या
1947 में 17 प्रतिशत से कुछ अधिक थी, जो
1998 में घटकर एक दशमलव छह प्रतिशत रह गई है और आज की तारीख में यह लगभग एक
प्रतिशत से भी कम है. कम से कम पकिस्तान जैसे देश को अल्पसंख्यको की दशा पर बोलने का कोई हक
नहीं है. क्या किसी धर्मनिरपेक्ष साहित्यकार ने इस बारे कभी पुरुस्कार वापस करने
के बारे सोचा ? जब कश्मीर में भयानक नरसंघार हुआ था और कश्मीरी पंडितो को घाटी से
बाहर कर दिया गया, जब गोधरा कांड हुआ, जब मुंबई बम कांड हुआ, जब दंगों में हजारों
सिखों की हत्या हुयी, तब कोई भी साहित्यकार पुरस्कार वापस करने क्यों नहीं आया ?
केंद्र में नई सरकार बनने के बाद पिछले डेढ़ साल
में ऐसा क्या हो गया जिससे इन साहित्यकारों ने इतना हाय तौबा मचा रखा है. क्या साहित्य अकादमी के पास राज्य
सरकारों से भी अधिक अधिकार है कि सम्पूर्ण भारत में कानून व्यवस्था सम्भाल ले. कानून
व्यबस्था राज्य सरकार का विषय है. क्या राज्य सरकारों को सख्त कारवाही से कोई
रोकता है ?
एक टी वी शो
में सुब्रमंयम स्वामी ने बताया कि अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर एक एजेंसी काम कर रही है जो भारत
में इस तरह की घटनाओं को अंजाम देकर माहौल को खराब करने की कोशिश कर रही है. इसका
मकसद न सिर्फ केंद्र में मोदी सरकार को परेशान करना अपितु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि खराब करना भी
है . श्री स्वामी ख्याति प्राप्त व्यक्ति है उनके कहने में अगर कुछ भी सच्चाई है
तो सरकार को चाहिए कि पूरी घटना की जाँच कराई जाए और अगर कोई इस तरह की कोई एजेंसी काम
कर रही है तो उसे बेनकाब किया जाए. ऐसा लगता है कि सुब्रमणयम स्वामी की बात में
काफी सच्चाई है. पंजाब में हो रहे उन्माद के पीछे किसी सुनियोजित अभियान का पता
चला है . अभी पश्चिम बंगाल मे हुए नन रेप
कांड, दिल्ली और मुंबई में चर्चों पर हुए
हमले द्वारा माहौल ख़राब करने के लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराया गया. लेकिन
बड़े ताज्जुब की बात यह है केंद्र सरकार ने भी इन घटनाओं पर आ बहुत ज्यादा संज्ञान
नहीं लिया और ना ही इन घटनाओं की तह तक जाने की कोशिश की गई ताकि उस अभियान की पोल
खोली जा सके और उसके पीछे छिपे व्यक्ति की पहचान की जा सके. अब समय आ गया है कि केंद्र सरकार
को चाहिए भारत में इस तरह चलने वाले किसी
भी अभियान को रोका जाना चाहिए ताकि भारत के अच्छे कार्यो को दुनिया को बताया जा
सके और भारत में तीव्र गति से विकास हो
सके . हिदुस्तान में रहने वाला हर व्यक्ति पहले हिन्दुस्तानी है चाहे वह किसी भी
धर्म का क्यों न हो और हर हिन्दुस्तानी का फर्ज है कि वह सांप्रदायिक सौहार्द और
भाई चारा बनाये रखे .
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Monday, 12 October 2015
साहित्य अकादमी पुरस्कार या राजनैतिक हथियार ..
नयनतारा सहगल जो भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरु की भांजी है, ने कुछ समय पूर्व साहित्य अकादमी पुरस्कार यह कहते हुए वापस कर दिया था कि भारत में लिखने की आजादी नहीं बची है और धर्मनिरपेक्षता के प्रति असम्वेदनशीलता बढ़ती जा रही है. ऐसा उन्होंने हाल ही में उत्तर प्रदेश के दादरी गाँव में गोमांस के संदेह में एक मुसलमान की हत्या होने के विरुद्ध में किया. उन्होंने कहा के वर्तमान सरकार के शासन में लेखकों के प्रति आक्रामकता बढ़ती जा रही है और जिसके विरोध में उन्होंने अपना पुरस्कार वापस करने का फैसला किया . देखते ही देखते कई कवि और साहित्यकारों ने अपने अपने पुरस्कार वापस कर दिए है. इनमे से कन्नड़ लेखक अरविन्द बलगती का साहित्य अकादमी आम परिषद से इस्तीफा देना भी शामिल है. पंजाब के तीन तथाकथित सुप्रसिद्ध लेखकों ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा की है. गुरबचन भुल्लर,औलख, अजमेर सिंह, नयनतारा सहगल आत्मजीत सिंह, उदय प्रकाश और अशोक बाजपेई जैसे लेखकों ने भी पुरुस्कारों के वापस करने की घोषणा की है. इस बीच साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा साहित्यिक संस्था अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष मे है और किसी भी लेखक के कलाकार पर आक्रमण या हमले की निंदा करती है .
यहां पर यह बात करना समोचित है कि यह पुरस्कार क्यों वापस किए जा रहे है ? पुरस्कार प्राप्त करने वाले कौन लोग है ? पुरस्कार किसे दिया जाता है ?और क्यों दिया जाता है ?
साहित्य अकादमी एक स्वायत्तता संस्था है और यह भारत की विभिन्न भाषाओं में उत्कृष्ट लेखन के लिए मौलिक कार्य (किताब) पर दिया जाता है. वस्तुतः यह पुरस्कार रचना पर दिया जाता है और रचनाकार को सम्मानित किया जाता है. इस पुरस्कार की वर्तमान राशि एक लाख रुपए और प्रशस्ति पत्र है. जिन्होंने ने यह पुरस्कार वापस किया है, अभी तक पता नहीं चला है कि उंन्होंने पुरस्कार की धनराशि भी वापस की है या नहीं. अगर पुरस्कार की धनराशि वापस हुई है तो जिस समय यह पुरुस्कार दिया गया था तब से लेकर आज तक इस पर बैंक की ब्याज दर के हिसाब से पूरा व्याज भी अदा करना चाहिये . लेखकों को यह भी बताना चाहिए कि जिस समय उन्हें यह पुरस्कार दिया गया था, क्या पहले उन्होंने इस बात की सहमति सरकार को दी थी कि अगर इस देश में कभी धार्मिक उन्माद फैलेगा या लेखकों के प्रति अनादर होगा तो वे पुरस्कार वापस करेंगे. इस तरह के ज्ञानी और बुद्धिमान साहित्यकारों से अब इस तरह की अपेक्षा नहीं की जा सकती. देश में जब तक सब कुछ आदर्श ढंग से चलेगा तब तक वह अपना पुरस्कार लिए रहेंगे. किन्तु देश के सामने अगर कोई चुनौती आएगी तो वह अपना पुरस्कार वापस कर देंगे और केंद्र में जो भी सरकार होगी उसका विरोध करेंगे. ये कायरता है.
ऐसा लगता है कि इन पुरस्कार और वापस करने के पीछे एक तुच्छ राजनीति काम कर रही है और उस राजनीति के दुष्प्रभाव के कारण यह पुरस्कार वापस किए जा रहे है जो किसी भी साहित्यकार के लिए सर्वथा अनुचित है. कहा तो यह जाता है कि साहित्यकार देश और समाज के लिए दर्पण का काम करते है ताकि उसमें समाज और देश अपनी छवि देख कर अपने आप को व्यवस्थित करने की कोशिश करता रहे और साहित्यकार लेखक स्वतंत्र रूप से अपना काम करते हुए सभी कुरीतियों और आलोकतान्त्रिक गतविधियों के खिलाफ आवाज उठाते रहेंगे और लोकतंत्र की रक्षा करेंगे. लेकिन आजकल ऐसे साहित्यकार भी पाए जाते है जो स्वयं यह घोषणा करते है अगर अमुक व्यक्ति प्रधानमंत्री बन जाएगा तो वह देश छोड़ देंगे, अगर अमुक पार्टी की सरकार बन जाएगी तो देश छोड़ देंगे. पुरस्कार लौटाने वाले ज्यादातर लेखक देश में भगवा करण से बहुत परेशान है. कितनी विडंबना है कि इस समाज और देश का मार्गदर्शन करने वाले तथाकथित लेखक और साहित्यकार सिर्फ इस बात से परेशान है कि इस देश में कौन सा राजनैतिक दल शासन करें और कौन सत्ता से दूर रहें. यह कहना अनुचित नहीं होगा कि जितने भी लेखक है उनमे से ज्यादातर को पुरस्कार अपने राजनीतिक संबंधो के कारण दिए गए थे और शायद यही कारण है कि वह अपने राजनीतिक संबंधो को महत्व देते हुए यह पुरस्कार वापस कर रहे है. इससे थोड़े समय के लिए ऐसा लग सकता है कि केंद्र सरकार के विरुद्ध एक जनादेश बना है लेकिन इस बात का बहुत जल्दी पता लग जाएगा कि इसके पीछे कौन सा राजनैतिक दल है. क्या इसमें कहीं किसी व्यक्ति विशेष के प्रति और किसी राजनीतिक दल विशेष के प्रति उनका दुराग्रह है ? और इसके पीछे क्या कोई षड्यंत्र काम कर रहा है ? निश्चित रुप से इस बात की जांच की ही जानी चाहिए. ऐसी क्या बात हो गई है जिनकी वजह से इन ज्ञानियों को त्याग पत्र देना पड़ रहा है. क्या इस तरह के त्यागपत्र लेखकों को किसी तरह की सुरक्षा दे पाएंगे ? और क्या उनके यह त्याग पत्र, देश में यदि कोई खराब वातावरण बन रहा है या साहित्यिक संस्थाओं का भगवा कारण हो रहा है, तो उसे रोकने में मदद मिलेगी ? कई प्रश्न है और यह जनमानस पूछ रहा है कि अभी कुछ समय पहले केरल मे एक प्रोफेसर के हाथ काट दिए गए थे और उनके ऊपर आरोप था कि उन्होंने एक धर्म विशेष के खिलाफ लिखा हुआ था, तब ये महानुभाव कहाँ थे ?
बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन, जिन्हें कट्टरपंथियों के दबाव में अपना देश छोड़ना और जो कोलकाता को अपना दूसरा घर मानती थी, लेकिन उन्हें कलकत्ता भी छोड़ कर जाना पड़ा. उनके बीजा न बढ़ाने में तत्कालीन सरकार के ऊपर अत्यधिक दबाव बनाया गया और उन्हें कुछ समय के लिए भारत भी छोड़ना पडा. पता नहीं उस समय क्रांतिकारी विचारो वाले और लोकतंत्र के ये महान जननायक कहाँ थे ? और लेखकों के अधिकार के प्रति जागरुक ये साहित्यकार कहां थे ? जयपुर में हुए एक साहित्यिक सम्मेलन में सलमान रश्दी को प्रवेश नहीं दिया जाता है, सिर्फ इसलिए प्रवेश नहीं दिया गया कि उन्होंने इस्लाम के विरुद्ध काफी लिखा है. उनकी किताब शैतानिक वर्सेस पर भारत ने प्रतिबंध लगाया गया. भारत के किसी भी साहित्यकार ने इस बात का विरोध नहीं किया. किसी भी लेखक को किसी भी संस्थान के प्रति विरोध व्यक्त करने का अधिकार है लेकिन इनका प्रथम दायित्व है कि वह समाज के लिए ऐसा लिखे जिससे समाज और देश में रचनात्मक बदलाव आए और हमारी आने वाली पीढ़ियां इससे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ें. जिससे लोकतंत्र मजबूत हो और देश की विचारधारा प्रगतिशील बने. बजाय इसके लेखक अपने निजी स्वार्थ में लगे हुए है. इस तरह के कृत्य से किसी भी सरकार का न तो मनोबल गिराया जा सकता है, ना ही किसी भी देश का वातावरण समृद्ध किया जा सकता है और ना ही है ही देश में कोई विचारधारा का प्रसार किया जा सकता है. अगर किसी व्यक्तिगत कारण से किसी किसी व्यक्ति का या किसी विशेष राजनीतिक दल का विरोध करना है तो अच्छा होगा कि ये साहित्यकार राजनीति में प्रवेश करें और अगर उनमे इतना आत्मविश्वास है कि वे इस देश की दुर्दशा को दूर कर सकते है. इस देश में फ़ैली तमाम बुराइयों को दूर कर सकते हैं और इस देश में बढ़ गई धार्मिक असहिष्णुता को खत्म कर सकते है. लेखको को और अधिक आजादी दिला सकते है तो निश्चित रुप से उन्हें राजनेति करने चाहिए और सत्ता के शिखर पर पहुंच कर देश के लिए कुछ करना चाहिए. अगर वे राजनीति में नहीं आते है तो देख ही समझेगा कि वह किसी ने किसी राजनीतिक दल के इशारे पर यह काम कर रहें हैं जो बेहद शर्मनाक है. जो पुरस्कार उन्हें उनकी रचना पर दिया गया है उसे वह राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल न करें.
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- शिव प्रकाश मिश्रा
Thursday, 7 May 2015
न्याय निर्णय ~ देर , दुरुस्त और चुस्त
सलमान खान को मुंबई की सत्र न्यायलय ने पांच वर्ष की सश्रम कारावास की सजा सुनायी है। सजा सुनाने के तुरंत बाद हाईकोर्ट से उनकी जमानत भी हो गयी। अब उनके पक्ष में कई नामी गिरामी हस्तियां आ गयी हैं और लगभग हर टीवी चैनल पर इसकी चर्चा हो रही है। सलमान के घर मिलने वालों का ताँता लगा है। इनमे बालीबुड की सभी प्रमुख हस्तिया और राजनैतिक लोग भी शामिल हैं। लोग सलमान के पक्ष में मीडिया में बेतुके बयान दे रहें हैं। ऐसा लग रहा है जैसे पीड़ित सलमान हैं।
इस देश में कितने मुक़दमे लंबित हैं ? कितने लोगों को न्याय का इन्तजार है और कितने लोग न्याय का इन्तजार करते करते परलोक चले गए ? शायद इसका आंकड़ा नहीं मिल सकता सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि यदि आज के बाद सारे नए मुक़दमे रोक कर सिर्फ लंबित मुकदमों का निपटारा किया जाय तो कम से कम १०० साल लग सकते हैं ( एक मोटे अनुमान के अनुसार निचली अदालतों में दो करोड़, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में ५० लाख मुक़दमे लंबित हैं )। हिट एंड रन नाम से प्रसिद्ध इस मुक़दमे का निर्णय केवल १३ साल में हुआ (अभी सिर्फ निचली अदालत से ) ये भी काफी संतोष जनक है। ये निर्णय सत्र न्यायाधीश श्री देशपांडे ने दिया जिनका हाल में ही मुम्बई के बाहर स्थान्तरण हो चुका है। सलमान खान बालीबुड के दबंग हैं बहुत पैसे वाले हैं। उनके पिता श्री सलीम खान भी एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। अगर अन्यथा दबाव न भी रहा हो तो भी न्यायाधीशों पर कितना मानसिक दबाव रहा होगा इसका अंदाजा लगाना आसान नहीं है। फिर भी तेरह साल बाद ही सही... दुरुस्त निर्णय देना बहुत साहस का काम है और अत्यधिक स्वागत योग्य है। ऐसे जज का नमन किया जाना चाहिए । स्वागत किया जाना चाहिए। निर्णय ने सन्देश दिया है कि कानून की नजर में सभी बराबर है। अपराधी को सजा तो मिलनी ही चाहिए चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो । लेकिन संम्भवता एक छोटी सी भूल मुझे नजर आती है कोर्ट ने माना है कि कार सलमान चला रहे थे तो फिर झूठी गवाही देने वाले अशोक सिंह जिसने कहा था कि कार वह चला रहा था , के विरुद्ध भी कार्यवाही की जानी चाहिए थी ताकि भविष्य में कोई इस तरह की गवाही देने की कोई हिम्मत न जुटा सके।
हाई कोर्ट ने दो घंटे के अन्दर जमानत दे दी, ये निराशा जनक लगा। हाई कोर्ट का निर्णय जरूर ये सोचने को मजबूर करता है कि क्या सामान्य व्यक्ति के लिए भी इतनी तत्परता दिखाई जाती है । सामान्य तौर पर इतनी जल्दी जमानत नहीं मिलती और चुस्ती तो कभी दिखाई नहीं पड़ती। इससे सलमान के प्रसंसक तो खुश हुए किन्तु सामान्य जनता को बहुत अच्छा सन्देश नहीं गया। न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए बल्कि ऐसा लगना भी चाहिए कि न्याय हुआ है। ऐसा लगता है कि सलमान को जमानत मिल ही जायेगी और मीडिया में ऐसा माहौल भी बनाया जा रहा है। अगर ऐसा होता है तो अगले दस पंद्रह साल लग जायेंगे हाईकोर्ट में और फिर भी निर्णय नहीं बदलता है तो सुप्रीम कोर्ट। कितने साल लगेंगे पता नहीं ? सलमान आज ४९ साल के है और सुप्रीम कोर्ट से निर्णय होते होते ७५ - ८० साल के हो जायेंगे। जो मर गए वो तो चले गए लेकिन पांच परिवार उजड़ गए। उन्हें कोई मुवावजा भी नहीं मिला।
क्या सलमान जैसे लोगों के लिए अलग कानून के जरूरत है ? अगर ऐसा है तो पूर्ण स्वराज और अच्छे दिन आने में अभी बहुत देर है।
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- शिव प्रकाश मिश्र
Friday, 1 May 2015
संसद का दुरुपयोग
एक तथा कथित गांधीवादी नेता जी ने राज्यसभा में ये कह कर हंगामा खड़ा कर दिया कि पतंजलि योग पीठ की एक दवा पुत्र पैदा करने के लिए बेची जा रही है। ये गैर कानूनी और असवैधानिक है। उन्होंने कहा कि ये दवा हरियाणा में बेची जा रही है। उनका साथ स्वाभाविक रूप से सभी विपक्षी पार्टियों ने दिया। हरियाणा में इसलिए क्योकि स्वामी रामदेव को हरियाणा सरकार ने अपना ब्रांड अम्बेसडर बनाया है। सरकार द्वारा उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा भी दिया गया था जिसे स्वामी रामदेव ने अस्वीकार कर दिया था। इससे पहले वे पद्म विभूषण का पुरुष्कार भी अस्वीकार कर चुके हैं। ये दो बहुत अच्छे काम हैं जो हाल में उन्होंने किये हैं।
स्वामी रामदेव ने योग का प्रचार प्रसार करके लोगो में योग अपनाने की जिज्ञासा पैदा की और आज आप देश में कहीं भी जाएँ पार्कों में योग करते हुए लोग मिल जायेंगे। बहुतायत घरों में आज योग करने वाले हैं। लोगों में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता ने बिना किसी औषधि के स्वस्थ्य रहने की लालसा पैदा कर दी है। ऐसा नहीं कि योग का बाबा रामदेव ने आविष्कार किया है पर योग के प्रति इतना समपर्ण इससे पहले किसी ने नहीं किया। लोगो को इसका फायदा हुआ है। मुझे इसका फायदा हुआ है। अगर निष्पक्ष रूप से देखा जाय तो समूचे हिंदुस्तान को उनका अहसान मंद होना चाहिए। ज्यादातर लोग ऐसा मानते भी हैं और ऐसा मानने वाले उनके अंध भक्त नहीं है। ज्यादातर लोग ऐसे है जिन्होंने सिर्फ टीवी पर उनके प्रोग्राम देख कर योग करना सीखा और अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाया। इससे देश को बीमारियों पर होने वाले खर्च में कितनी बचत हुई है इसका आंकड़ा नहीं जुटाया गया है पर हर व्यक्ति को इसका हिसाब लगाना ही चाहिए कि योग ने उसके परिवार की कितनी आर्थिक बचत की है। शायद तभी हम सब समझ सकेंगे कि देश की कितनी बचत हुई है। निश्चित रूप से ये धनराशि बहुत बड़ी है। जितनी बड़ी राशि है उतना ही बड़ा किसी का नुक्सान भी है। बाबा रामदेव ने दूसरा सबसे बड़ा काम किया है आयर्वेद की दवाये बना कर और आयुर्वेद का प्रचार और प्रसार करके। ये बताने की आवश्यकता नहीं कि आयुर्वेद की दवाये बिना किसी अतरिक्त साइड इफेक्ट के लाभ पहुँचाती हैं। दिव्य फार्मेसी की बनी दबायें कम कीमत की हैं और इससे दूसरी कंपनियों की दवाओं के दाम भी गिरे है जो पहले बहुत महंगी हुआ करती थीं. इसका दूसरा पहलू है जडी बूटियों के उगाने और उनके प्रोसिसिंग से सामान्य जन को मिलने वाले रोजगार से। अभी इसमें और अधिक संभावनाएं हैं जिनका दोहन किया जाना बाकी है।
स्वामी रामदेव के इन प्रयासों ने जहाँ उन्हें सामान्य जन का हीरो बना दिया वही एक बड़ा वर्ग उनसे सख्त नाराज है जो आर्थिक रूप से प्रभावित हुए है। इनमे द्बाइयां बनाने वाली कंपनियों से लेकर कोल्ड ड्रिंक और जंक फ़ूड बेचने वाले शामिल हैं। कुछ लोग धार्मिक आधार पर योग के विरुद्ध है और इनके वोट बैंक के स्वयंभू ठेकेदार भी इसी वजह से नाराज है। ये सारा गठजोड़ हमेशा इस कोशिश में रहता है कि उन्हें कुछ मिले तो अपनी तलवार भांज कर इन सबकी हमदर्दी हाशिल कर लें। कुछ को ये सुर्ख़ियों में आने का अच्छा नुस्खा लगता है। कुछ राजनैतिक दल तो उनसे खासे नाराज रहते हैं जिनकी वजहें जग जाहिर हैं।
दिव्य पुत्र जीवक बीज औषधि जो सुर्ख़ियों में है, वस्तुत: infertility की दवा है जो पुरुष और महिलाओं दोनों की दी जाती है इसकी कीमत केवल रु ३५ है। जाहिर है अगर इसका उद्देश्य रूपया कमाना होता तो ये दबा बहुत महंगी होती। फिरभी हो सकता कुछ दवा विक्रेता कुछ भ्रम फैला कर बेचते हों। पतंजलि योगपीठ की वेबसाइट पर दी गई दवाओं की लिस्ट देखने पता चलता है कि
यह दवा अभी भी बेची जा रही है। दवा के एक पैकेट की कीमत 35 रुपये है,
हालांकि इस दवा पर कहीं भी ऐसा कुछ नहीं लिखा है जिससे यह कहा जा सके कि यह बेटा
पैदा होने के लिए दी जाने वाली दवा है। दिव्य फार्मेंसी की साइट पर दी गई जानकारी
के मुताबिक यह दवा प्रसव संबंधी समस्याओं और इन्फर्टिलिटी के लिए है। बाबा रामदेव को हरियाणा का ब्रांड एम्बेसडर बनाए जाने के बाद भी यह मुद्दा सोशल
साइट्स पर चर्चा पर आया था। इस मामले में संस्थान के फाउंडर सदस्य आचार्य बाल
कृष्ण को अपनी फेसबुक वॉल पर इस मामले में सफाई देनी पड़ी थी । बालकृष्ण ने कहा था
कि विदेशी कंपनियां बाबा रामदेव की जड़ीबूटियों को बदनाम करने के लिए एक मुहिम चला
रही हैं। यह जड़ी महिलाओं में बांझपन दूर करने के लिए है। खास बात यह है कि दवा का
नाम पुत्र जीवक बीज नाम की इस दवा को लेकर दिव्य फार्मेसी ने ऐसा कोई दावा नहीं
किया है कि इसके सेवन से पुत्र ही पैदा होगा। इससे पहले भी पतंजलि योगपीठ में ' पुत्रवती ' नामक दवा बेचने को लेकर काफी विवाद हो चुका है और 2007 में इस मामले की जांच भी की गई थी और कुछ भी अन्यथा नहीं पाया गया था। जाँच भी उत्तराखंड सरकार ने की थी जो पहले भी अन्य कारणों से बाबा के पीछे पडी हुई थी। तत्कालीन केंद्र सरकार ने तो अनेक बड़े घोटाले छोड़ कर पतंजलि पीठ की जाँच शुरू कर दी थी। पासपोर्ट और अन्य कारणों से बालकृष्ण को गिरफ्तार कर लिया गया था। बाबा रामदेव के उत्पाद विश्व भर में तहलका मचा रहे हैं लेकिन कुछ हिन्दुस्तानी कुछ स्वार्थी लोगो के इशारों पर बाबा रामदेव के नाम पर देश का बेडा गर्क कर रहें हैं. टीवी , रेडियो और समाचार पत्रों में आयी सुर्ख़ियों से उनके मंसूबे पूरे होते है, क्यों कि बड़ी कंपनिया जो तमाम पैसा खर्च कर मीडिया में जगह नहीं पा पाती इन नेताओं पर थोडा सा उपकार कर ये काम पूरा कर लेती हैं।
दवाई का नाम ( दिव्य पुत्र जीवक बीज) बेहद भ्रामक है और ऐसा संदेश देता है कि इससे पुत्र पैदा होगा, हालांकि दवा के पैकेट पर इस बात का दावा नहीं किया जा रहा है, दिव्या फमेसी को चाहिए कि इसका नाम बदले और अगर ऐसी और भी कोई दवा है तो उसके नाम में कोई संसय न हो।
इन तथा कथित गांधीवादी नेता ( पता नहीं सोनिया गांधीवादी या राहुल गांधीवादी ) का उद्देश्य प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान की हवा निकालना और उन्हें घेरना है। इन तथाकथित नेताओं ने देश का बहुत अहित किया है इनसे बहुत सावधान रहने की आवश्यकता है।
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-शिव प्रकाश मिश्र
Saturday, 25 April 2015
किसान, हम, आप और राजनीति
अभी हमने देखा
और सुना कि दिल्ली में हुयी एक रैली में एक किसान ने आत्म ह्त्या कर ली। कई दिन से सारे
टीवी चैनलो पर खबर छाई है. आज ऐसा वातावरण बना हुआ है की कोई भी अच्छी
और रचनात्मक खबर समाचार पत्रो और टीवी पर जगह नहीं पा सकती
है किन्तु असामान्य खबरे मीडिया में छाई रह सकती हैं।
इसका सीधा प्रभाव ये होता है कि लोगों को लगता है कि कुछ ऐसा किया जाय जिस से
मीडिया में जगह पा सकें।
स्वाभाविक है है
कि इसके साइड इफेक्ट तो होंगे ही वो अच्छे हों या बुरे। दिल्ली
में निर्भया कांड ने सभी को झकझोर दिया था लेकिन क्या इससे पहले इतने बीभत्स कांड नहीं हुए ? बहुत हुए। फूलन
देवी के साथ हुयी घटना, जिसे ज्यादातर लोग फूलन पर बनी फिल्म के माध्यम से ही जानते
हैं, कितनी दुर्दांत घटना थी।
वास्तव में इससे भी अधिक भयानक घटनाये
घट चुकी हैं और आगे भी होती रहेंगी क्योकि मानवीय मूल्यों के गिरावट की
कोई सीमा नहीं होती है। जितना ख़राब से ख़राब कोई व्यक्ति सोच सकता है उतना कर भी सकता
है। दिल्ली में होने के कारण निर्भया कांड को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में
बहुत कवरेज मिला। महीनों टीवी, रेडियो और समाचार पत्रों में ये कांड गूंजता रहा। हर
अच्छे और बुरे व्यक्ति ने इसे अपनी अपनी तरह अपनाया । लेकिन
काफी समय तक बलात्कार की क्रूरता पूर्ण घटनाओं की पूरे देश में जैसे बाढ़ आ गयी। कहते
है कि बदनाम होंगे तो भी तो नाम होगा।
कुत्सित मानसिकता के लोगों ने बेहद
निम्न स्तरीय बदले की भावना से और घ्रणित प्रचार
पाने की लालसा कितने ही अजीबोगारीब तरीके
से बलात्कार की घटनाओं को अंजाम दिया।
आज किसानो की आत्महत्या का पूरा माहौल
बना है। जितना मीडिया कवरेज मिल रहा है उतनी ही घटनाएं सामने आ
रही हैं। मेरा ये कहने का मतलब नहीं है कि इन सबके लिए मीडिया जिम्मेदार है लेकिन
असामान्य घटनाओं को सबसे पहले, सबसे निर्भीक और सबसे तेज रिपोर्ट करने की होड़ या अंधी
दौड़ ने कहीं न कहीं इन घटनाओं में उत्प्रेरण का काम किया है।
दिल्ली की रैली
में गजेन्द्र सिंह की आत्म ह्त्या भी एक कृतिम असामान्य घटना गढ़ने की प्रक्रिया
में हुआ हादसा है। अब ये छिपी बात नहीं है कि गजेन्द्र सिंह पूर्णतया
किसान नहीं थे, केवल उनका सम्बन्ध एक गाँव से था और ग्रामीण थे। न तो
उनकी आर्थिक स्थिति ख़राब थी और न ही उनके पिताजी ने उन्हें घर से निकाला था. फिर
उनके सुसाइड नोट में जो संभवता उन्होंने नहीं लिखा था ,
ये बातें कैसे आ गयी ? किसने और क्यों डाली ?
उनके घरवालों ने उनकी लिखावट होने से
इंकार किया है.
रैली में मुख्यतया
दिल्ली और आसपास के लोग थे दुसरे राज्यों से आने वालों की संख्या कम थी। रैली
का टीवी कवरेज भी बहुत नहीं था और कम से कम लाइव कवरेज तो नहीं ही था जो कुछ
नेताओं की चाहत थी। बस फिर क्या किसी शातिर दिमाग में फितरत कौंधी और आनन् फानन
में एक किसान या किसाननुमा व्यक्ति को तलाश कर आत्महत्या की
फुल ड्रेस ड्रामा करने की पटकथा लिखी गयी. कुछ टीवी के विडियो फुटेज में
सुनायी पड़ रहा है "सम्भल के"
"ढीला बांधना"
"पकडे रहना" "लटक गया क्या "
आदि आदि इस और इशारा कर रहा है। बिना रिहर्शल के किये
जाने वाले ड्रामे का जो हाल होता है,
वही हुआ. ये नाटक एक गंभीर हादसे
में बदल गया. जो मरने का ड्रामा कर रहा था वह सचमुच मर गया. चूंकि सबको (कम से कम
कुछ लोगों को ) पता था कि ये नाटक है,
इसलिए किसी भी ने सहायता के लिए गंभ्भीर
प्रयास नहीं किया। सब कुछ सामान्य चलता रहा
और भी भाषण भी । हिन्दुस्तान
के सभी टीवी न्यूज चैनलों ने इस घटना का लगभग सजीव प्रसारण किया किसी भी चैनल के
रिपोर्टर या कैमरा मेन ने भी अगर जरा सा मानवीय प्रयास किया होता तो गजेन्द्र ज़िंदा होते ।
कहते है कि हर एक का अपना अपना रोल होता
है यहाँ मानवीय सहायता का जिम्मा भी सिर्फ पुलिस को निभाना था
बाकी लोगों को अपना कम करना था जैसे
नेताओं को भाषण
देना , प्रेस रिपोर्टर्स को सजीव प्रसारण करना ,
उपस्थिति लोगों को नेताओं और सुसाइड
करने वाले की हौसला अफजाई करना आदि कई लोगों ने मंच से चिल्ला चिल्ला कर पुलिस
से किसान को बचाने की अपील भी की और वहां उपस्थिति लोगों ने पुलिस
को पहुँचने नही दिया। लोगों ने मंच से सुसाइड नोट पढ़ कर सुनाया और अपने विरोधी दलों के नेताओं को मौत का
जिम्मेदार बताया उस समय तक मौत की अस्पताल से पुष्टि भी नहीं हुई थी ।
तो क्या हुआ एक गजेन्द्र सिंह मर गए , …। तो
क्या हुआ उसकी बच्चे अनाथ हो गए,
………… तो क्या हुआ उनके मां बाप भाई और बहिनो
के आंसू नहीं रूक रहे, ………। वे नहीं समझ पा रहे कि
ऐसा क्यों हुआ ?
पर बाकी सबकुछ योजना
वद्ध ढंग से हुआ जैसे
- रैली का सजीव प्रसारण
- सबसे तेज, सबसे आगे और सबसे पहले की घोषणा .... टी आर पी में वृद्धि
- लगभग हर चैनल पर पैनल डिस्कसन। ……। पार्टी प्रवक्ताओं को तुरत फुरत काम
- राजनैतिक नफा नुक्सान का आकलन शुरू। ……।कुछ दिनों में सब कुछ सामान्य हो जायेगा असामान्य समाचारों के शिकारी कोई और न्यूज पर टूट पड़ेंगे। और शायद एक न्यूज अनायास उनके हाथ लग गयी भूकंप आ रहा है नेपाल में और उत्तरी भारत में।**************
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