Tuesday 8 March 2016

और.... अब.... श्री श्री की बारी



श्री श्री रविशंकर की आर्ट ऑफ़ लिविंग द्वारा आयोजित विश्व सांस्कृतिक उत्सव का आयोजन 11 मार्च से 13 मार्च तक दिल्ली में पूर्वी यमुना किनारे किया जा रहा है. इसका आयोजन आर्ट ऑफ लिविंग के 35 वर्ष पूरे होने उपलक्ष में किया जा रहा है और वास्तव में आर्ट ऑफ लिविंग और इसके अनुयायियों के लिए उत्सव  जैसा है . आर्ट ऑफ लिविंग, लोगों को शांत और खुश होकर जीने की कला सिखाता है, तनाव को दूर करता है, और  व्यक्ति खुशहाल रह सकता है. चूँकि  इन सबसे व्यक्ति की  उत्पादकता भी बढती  है इसलिए लगभग  सभी बड़े कॉर्पोरेट  अपने कर्मचारियों को आर्ट ऑफ लिविंग के कोर्स कराते है. स्वाभाविक है आर्ट ऑफ लिविंग के अनुयायियों की एक बहुत बड़ी संख्या है. विश्व के लगभग हर बड़े शहर में आर्ट ऑफ़ लिविंग के आयोजन हए हैं.  हिंदुस्तान का एक बहुत बड़ा समूह आर्ट ऑफ लिविंग से प्रशिक्षित और प्रभावित है. अब जब  आयोजन का समय बहुत नजदीक आ गया है, कुछ पर्यावरण विद और संस्थाएं इस आयोजन के विरोध में खड़े हो गए हैं. मामला नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में  चल रहा है. आज भी इसकी सुनवाई होगी. पक्ष और विपक्ष में दलीलें होगी लेकिन अहम् प्रश्न  है कि क्या यह आयोजन हो सकेगा ?

इस आयोजन का उद्देश चाहे जो भी हो लेकिन कम से कम राष्ट्र और मानवता के विरुद्ध तो नहीं हो सकता. इस आयोजन में कई देशों के कलाकार भाग लेंगे और भारत के विभिन्न राज्यों की संस्कृतियों प्रस्तुत करने के अलावा विभिन्न समुदायों और  विभिन्न धर्मों के लोग मिलेंगे बैठेंगे और विश्व शांति के लिए रास्ता खोजेंगे. कुल मिलाकर देखा जाए तो यह ऐसा दुर्लभ आयोजन है जो भारत भूमि पर होगा और भारतवासियों को उपलब्ध होगा. हम शामिल हो पाएं या नहीं पर टीवी चैनलों के माध्यम से  कम-से-कम सभी भारतवासियों को  इस का लाभ मिल सकता  हैं. आजकल भारत में प्रचलन  हो गया है हर अच्छे काम का विरोध करना. और उस के पक्ष विपक्ष में पूरे हिंदुस्तान को बांटने की कोशिश करना. गनीमत यह है कि यह मामला सिर्फ पर्यावरण से जोड़ा गया है इसमें  धार्मिक मानसिकता का समावेश नहीं किया गया है . यह अच्छी बात है कि पर्यावरण के लिए पूरा विश्व सजग  है और हम भी उस में सहयोग कर रहे हैं लेकिन कुछ पर्यावरण विद और  उनके कार्यकर्ता ऐसा काम करते हैं जिससे जनमानस के बहुत बड़े वर्ग में कसमसाहट होती है. सभी जानते हैं पर्यावरण विश्व की समस्या है और बहुत बड़ी समस्या है लेकिन इस समस्या को खड़ा करने में कम-से-कम भारत का बहुत बड़ा योगदान नहीं है क्योंकि जो कार्य विकसित देशो ने कम समय में कर दिया है वह  भारत कम-से-कम अगले 50 साल में भी नहीं कर सकता है. हमें देखना होगा कि इस तरह के आयोजन से पर्यावरण का कैसा और कितना नुकसान हो जाता है और जिस प्रकार के तर्क और कुतर्क इस आयोजन के विरोध में दिये  जा रहे हैं साधारण जनमानस को समझ में नहीं आ सकते . अमेरिका सहित  विश्व के किसी भी देश में अगर इस तरह का आयोजन होता तो उस देश के लिए गौरव की बात होती लेकिन हिंदुस्तान में हम लोग अभ्यस्त हो गए है कि  हर अच्छे काम का विरोध होता है. यहां तक  बड़े तीज त्योहारों का भी विरोध होता है दिवाली पर पटाखे ना छोड़ने की अपील होती है. कितने शक्ति के पटाखे चलाए जाएं निर्णय किये जाते हैं इस पर रोक लगाई जाती है. होली पर  पानी कितने समय उपलब्ध हो यह निश्चित किया जाता है. होली जलाने में लकड़ी और आदि का जो प्रयोग किया जाता है इस पर भी तमाम विरोध होता  है  पर्यावरण  के नाम पर. बहुत बड़े यज्ञ और हवन के  विरोध में भी  आवाजे आती  हैं.

शायद सभी जानते है भारत की जीवन पद्धति आद्र पद्धति है और आदिकाल से सभी आयोजन नदियों, जलाशयों और सरोवरों  के किनारे होते आये हैं . कुम्भ, अर्ध कुम्भ सहित तमाम  आयोजन नदियों के किनारे होते  है और करोड़ों की संख्या में लोग भाग लेते हैं. आज अगर इस तरह के आयोजन के विरुद्ध आवाज उठाई जा रही है तो कल कुंभ और अर्ध कुंभ के आयोजन पर भी प्रतिबंध प्रतिबंध लगाया जा सकता है. हो सकता है कि सरकारी औपचारिक्ताये पूरी  न हुयी हों पर भारत के एक बड़े वर्ग को इससे वंचित नहीं किया जाना  चाहिए.
आशा है ये आयोजन जरूर होगा . 
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शिव प्रकाश मिश्रा 

Friday 4 March 2016

कन्हैया की रिहाई ....... बधाई ..उनके शुभ चिंतकों को

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र संगठन के पदाधिकारी कन्हैया कुमार को कल दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश पर रिहा कर दिया गया. हालाकि  दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश में ऐसी  बहुत सारी  शर्तें हैं जिनसे JNU में जो कुछ हुआ उसके प्रति अच्छा सन्देश नहीं है. ये सर्व विदित है कि कैसे JNU  को राष्ट्र विरोधी तत्वो का अड्डा बनाया गया और कैसे वहां पर राष्ट्र विरोधी गतिविधियां चलाई जाती है और कैसे वहां पर  देश के बहुत संख्यक समुदाय के प्रति कुत्सित भावनाएं निकाली जाती हैं . इन सब के पीछे एक सुनियोजित अभियान है और इस अभियान को राष्ट्रीय स्तर  और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी धन उपलब्ध कराया जाता है. अंतरिम जमानत आदेश की शर्तों में कन्हैया कुमार को किसी भी देश विरोधी अभियान में शामिल ना होना, किसी भी ऐसी चीजों से अलग रहना  जिससे देश की छवि प्रभावित होती है, देश की अखंडता को धक्का पहुंचता है. लेकिन इस जमानत को एक बहुत बड़ी विजय के रूप में प्रचारित और प्रसारित किया जा रहा है .

  रिहाई के बाद कन्हैया कुमार के लिए  JNU में उसी रात लगभग 11:00 बजे एक सभा का आयोजन किया गया जिसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लगभग हर चैनेल ने सीधे प्रसारित किया. जिन लोगों ने ये  सीधा प्रसारण देखा और कन्हैया कुमार द्वारा संबोधन और उस में कही गई बातों का सुना, उन लोगों को इस बात का एहसास जरूर हुआ होगा कि उसके बोलने की स्टाइल और डायलोग बहुत ही  अच्छे हैं, पूरा भाषण किसी मंझे  हुए राजनेता से कम नहीं था . भाषण को बहुत ही सावधानी  से लिखा गया था और मुख्य निशाना केंद्र व् सरकार नरेंद्र मोदी थे . यह कहना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि  पूरे भाषण में कन्हैया कुमार ने कई राजनीतिक दलों का और कई  नेताओं का नाम लेकर उनके प्रति आभार व्यक्त किया और प्रशंसा की जिन्होंने उनका साथ दिया. ये  दर्शाता है कि यह पटकथा कहीं और लिखी गयी . कन्हैया कुमार के अतीत को अगर देखा जाए तो ऐसा नहीं लगता कि वह किसी मंझे  हुए नेता की  तरह सधा  हुआ भाषण देने की कला जानते हैं.  और तो और, भाषण के अंत में उसी तरह की  नारेबाजी की गई.... आजादी.... आजादी जैसे कि उमर खालिद ने हिंदुस्तान से  आजादी की  बात की थी. शायद इसका उद्देश पूरे देश को संदेश देना होगा की उस दिन अफजल गुरु की बर्षी पर भी  इसी तरह के भाषण दिए गए थे  और जो भी वीडियो पुलिस के समक्ष प्रस्तुत किये गए या  मीडिया में दिखाए गए गए वह सही नहीं थे. यही काफी कुछ नियोजित लगता है.

कन्हैया कुमार की जेल के दौरान  उनके परिवारी जनो द्वारा जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित करना और कन्हैया ने  जो भी किया  उस पर गर्व किया . भाषण में तमाम लोगों पर नाम कटाक्ष किया गया और एलान किया गया कि आजादी की जंग चलती रहेगी. स्वाभाविक है आजादी की जंग का मतलब मोदी सरकार से आज़ादी. ये शुद्ध राजनीति है और इसलिए जो पूरा ड्रामा शुरु हुआ और उसे  जो मोड़ दिया गया वह आगामी चुनाओं को ध्यान में रखते हुए  किया गया है.


भारत में पिछले  कुछ महीनों में हुए आन्दोलनों पर  अगर सिलसिले बार गौर किया जाए तो आप पाएंगे कितना कुछ बिलकुल इवेंट मैनेजमेंट की तरह किया जा रहा है . फिल्म एवं टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया पुणे में छात्रों का प्रदर्शन होता है, कथित बौद्धिक लेखक वर्ग असहिष्णुता के नाम पर अपना पुरस्कार वापस करता है और तब  तक चलता रहता है जब तक बिहार के चुनाव संपन्न नहीं हो जाते,  इसी बीच में रोहित वेमिला का मामला आता है, बीफ का मामला गर्माता है . इसके बाद मैं जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय का नंबर आता है और अफजल गुरु के फांसी के दिन को  शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है, उसकी प्रशंसा की जाती है. अफजल गुरु के पक्ष में स्वयं  उमर खालिद और एक विशेष समुदाय संबंध रखने वाले कई नेता मीडिया बहस में अफजल गुरु और कई ऐसे लोगों के पक्ष में बयान देते हैं.

इस बात में किसी को भी कोई संदेह नहीं कि जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में राष्ट्र विरोधी नारे लगाए गए . अखिलेश गुरु के समर्थन में नारे लगाए गए और बहुत से ऐसे नारे लगाए गए कि कोई भी राष्ट्र भक्त और राष्ट्र हित में सोचने वाला व्यक्ति बर्दाश्त नहीं कर सकता है. जब इस मामले को मीडिया में उछाल दिया गया तो तथाकथित बौद्धिक वर्ग सामने आ गया इसमें राजनैतिक दल भी थे और कई गणमान्य व्यक्ति भी. पूरे मामले को ऐसा मोड़ दे दिया गया जैसे की राष्ट्र और राष्ट्र विरोध की भावना ना होकर केंद्र सरकार और छात्र के बीच का मामला है. कन्हैया कुमार को जेल  ले जाते समय  धक्का मुक्की को उन वकीलों के लिए ऐसा पेश किया गया जैसे उनका कृत्य राष्ट्रद्रोह से भी भयंकर है. इस बीच उमर खालिद और उसके अन्य साथी  भूमिगत हो जाते हैं और जब पूरा माहौल उन के पक्ष में बन जाता है, कई राष्ट्रीय नेता और अंतरराष्ट्रीय हस्तियां  उन के पक्ष में खड़े हो जाते हैं तो अचानक प्रगट हो जाते हैं. दिल्ली सरकार जिसके पास पुलिस का कंट्रोल  नहीं है, कानून व्यवस्था का भी दायित्व  नहीं है,  मजिस्ट्रेट जांच का आदेश देती है और उस जांच में यह पाया जाता है कि जो वीडियो पुलिस को दिए गए और जिन वीडियो के आधार पर भी कार्रवाई की जा रही उनके साथ छेड़छाड़ की गयी थी. इन सबके बीच कई राजनीतिक दलों के नेता कैम्पस  जाते हैं और सभी छात्रों के समर्थन में खड़े हो जाते हैं . कई राज्यों के मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्यों से बयान देते हैं. अब कन्हैया बामपंथियो, कांग्रेस और आप के लिए चुनाव प्रचार करेंगे ...

विषय बहुत गंभीर है और इसको उतनी ही गंभीरता से हल करने की जरूरत है. देशद्रोहियों के साथ,  देश के विरुद्ध बात करने वालों के साथ, देशद्रोहियों का साथ देने वालों के साथ, बहुत ही सख्ती से पेश आने की जरूरत है लेकिन देश के पालनहार कर्णधार राजनैतिक  स्वार्थ बस .....देश हितो के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं . राजनीतिक स्वार्थ आज देश तो बहुत बड़ा हो गया है. पूरी दुनियां देख रही है .. भारत कैसा महान है ? और कितना महान है ?


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शिव प्रकाश मिश्रा 



Thursday 3 March 2016

कर्मचारी भविष्य निधि .....आयकर.....या सजा ?

बजट में वित्त मंत्री द्वारा कर्मचारी भविष्य निधि पर लगाए जाने वाला टेक्स साधारण टैक्स नहीं है यह कर्मचारियों के लिए जिन्होंने 30 - 35 साल की सेवा अवधि पूरी कर ली है और निकट भविष्य में सेवानिवृति होने वाले हैं, बहुत बड़ी सजा है. यह ज्यादातर कर्मचारियों की राय है.  भविष्य निधि एक  लंबी अवधि की संचय योजना है और उसका उद्देश्य सेवा निवृत्ति के समय एक मुस्त राशि प्रदान करना है ताकि वे अपनी जिम्मेदारियों का वहन कर सकें.  वित्त सचिव और वित्त  राज्य मंत्री के बयानों और स्पष्टीकरण से ऐसा मालूम हुआ है कि  संभवत: ब्याज की 60% भाग पर टैक्स लगेगा.

 टैक्स का प्रावधान  करने वाले केंद्र सरकार के उच्च अधिकारियों को शायद ये  नहीं मालूम है कि  सेवा मुक्त होने पर भविष्य निधि की राशि जो कर्मचारी को मिलती है उस में आधे से अधिक हिस्सा सिर्फ ब्याज का होता है और अगर ब्याज की 60% राशि पर भी टैक्स लगाया जाता है तो यह बहुत अधिक होगा लगभग. अगर कोई कर्मचारी पेंशन सिस्टम में निवेश करने की बजाय टैक्स देना पसंद करें, तो अनुमान है कि  वह व्यक्ति अपने भविष्य निधि का लगभग पांचवा (१८-२०%) हिस्सा सिर्फ टैक्स के रुप में गवां देगा . अगर यह पैसा  पेंशन योजना में  लगाया जाता है जो आज की परस्थितयों में  बहुत अच्छा सुझाव नहीं है, क्योंकि एक तो ज्यादातर योजनाएं भारत में बहुत आकर्षक लाभ नहीं दे रहीं  हैं और दूसरे इन  योजनाओं से निश्चित समय बाद जो पैसा निकालने दिया जाता है तो उन पर आयकर लगता है। 

 पेंशन योजना की  तुलना में अगर इस राशि को कहीं अन्यत्र निवेश किया जाता है तो उसके लाभ काफी जादा है. स्पष्ट है कि जो  कर्मचारी रिटायर होते हैं उनके पास भविष्य निधि के फंड के अलावा बहुत सीमित विकल्प होते हैं और खास तौर से ऐसे लोग जो अपनी जिम्मेदारियों के कारण अपने सेवाकाल में ऐसा कुछ नहीं कर पाते हैं जिसके  सपने उनके दिल में होते हैं. ये लोग सेवा मुक्त होने  के बाद ऐसा क्या करेंगे ? कार खरीदेंगे.. मकान खरीदेंगे...बच्चों की शादी विवाह करेंगे...  जमीन खरीदेंगे या जाकर गांव कस्बे या शहर  में बसेगे. उनके लिए यह प्रस्ताव बहुत ही मुसीबत देने वाले हैं . 

वास्तव में यह टैक्स नहीं... सजा है और सरकार को इस से बचना चाहिए . इस तरह का प्रावधान एक तो अनायास नहीं किया जा सकता और दूसरे ऐसे लोग अपने पूरे सेवाकाल में तमाम कठनाईयां सहने के बाद अपने भविष्य निधि को हाथ भी नहीं लगाया और भविष्य के लिए सुरक्षित रखा. मनोवैज्ञानिक रुप से भी एक अच्छा कारण सरकार के लिए नहीं है.. वित्त मंत्रालय से जुड़े तमाम अधिकारियों ने कहा है इस योजना का उद्देश भविष्य निधि पर टैक्स लगा कर  सरकार के लिए पैसे जुटाना नहीं है बल्कि सरकार चाहती है की लोगों को सामाजिक सुरक्षा मिले. अगर सरकार की यह बात स्वीकार भी की जाए तो भी इसे तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता. इस तरह की योजना अगर लागू करनी है तो नए कर्मचारियों के लिए लागू करनी चाहिए और जो कर्मचारी अगले कुछ सालों में रिटायर होने वाले हैं उन पर यह योजना थोपी नहीं जानी चाहिए.  इस तरह की योजनाएं बनाने वाले मुख्यता केंद्र सरकार के वह बड़े अधिकारी है जिनके पास अच्छी संपत्ति है और जिन्होंने देश विदेश घूमकर सामाजिक सुरक्षा की विभिन्न  योजनाएं देखी हैं जिनका भारत में काम करने वाले छोटे कर्मचारियों की रोजाना जिंदगी और समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है. ये  वह अधिकारी हैं जिनको इतनी पेंशन मिलती है जो शायद प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर के निकायों में काम करने वाले बड़े अधिकारियों की सैलरी से भी ज्यादा होती है. स्वाभाविक है वह शायद इस योजना को समझ नहीं पाएंगे . 

अच्छा  होगा यदि सेवा मुक्त होने वाले कर्मचारी अपना पैसा कैसे इस्तेमाल करेंगे ? कहां लगाएंगे ? इसका फैसला उनके ऊपर छोड़ देना चाहिए. इस तरह की जो सोशल सिक्योरिटी की योजनाएं लागू की जानी  है वह कर्मचारियों के करियर की शुरुआत में लगाई जानी चाहिए. कम से कम भी सेवा मुक्त होने वाले कर्मचारियों पर यह चीजे नहीं थोपी  जानी चाहिए.  
इस प्रावधान को तुरंत वापस ले लेना चाहिए.


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               -  शिव प्रकाश मिश्रा 

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