Thursday, 25 July 2013
Wednesday, 24 July 2013
देश की शर्मिंदगी
ये
देश कहाँ जा रहा है ? वर्तमान राजनीति इस देश को कितना शर्मिंदा करेगी ? आज
के दिन कोई इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता ।
इस देश के लोकतन्त्र के मंदिर कहे जाने वाले संसद के लगभग 65 सदस्यों ने अमेरिकी राष्ट्रपति
बराक ओबामा को पत्र लिख कर निवेदन किया है कि गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी
को अमेरिकी बीजा न दिया जाय । इस चौंकाने वाली कार्यवाही ने समूचे देश को बहुत शर्मिंदा
किया है । क्या घरेलू राजनीति का विरोधाभास या राजनैतिक विरोध अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर
पर लड़ा जाएगा और दूसरे देशों से अपने राजनैतिक विरोधियों को सबक सिखाने के लिए कहा
जाएगा ? क्या भारतीय राजनीति का चेहरा इतना विकृत हो चुका है
कि राजनैतिक हिसाब चुकाने के लिए के लिए देश के स्वाभिमान और सम्मान को भी दांव पर
लगा दिया जाएगा ?
अमेरिका का वीज़ा किसी भारतीय के लिए क्या
मायने रखता है ? क्या अमेरिका स्वर्ग है जहां जाने के लिए हर कोई लालायित होगा ? या जहां जाए वगैर किसी को मोक्ष नहीं मिल सकता ? या
उसका अस्तित्व ही नही होगा ? अपनी पहचान नही होगी ? क्या अमेरिका कोई अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय है कि जिसे वह वीज़ा नहीं देगा उसे
अपराधी माना जाएगा ?
जहां तक नरेंद्र मोदी का सवाल है वह संवैधानिक
विधि व्यवस्था के अंतर्गत जनता द्वारा चुने गए मुख्यमंत्री है, जो एक संवैधानिक
पद है, और उन्हे यदि कोई देश वीज़ा से इंकार करता है तो ये भारत
की संप्रभुता का अपमान है । यह संतोष की बात है कि भारत सरकार ने अमरीकी प्रशासन से
इस पर अपना विरोध दर्ज कराया है । पर संसद के दोनों सदनो के लगभग 65 सदस्यों ने अपनी
इस कार्यवाही से ये साबित कर दिया है कि उन्हे भारत के संविधान की, जिसके प्रति उन्होने निष्ठा की शपथ ली है, समुचित जानकारी
नहीं है या श्रद्धा नहीं है । ये तो अच्छा हुआ कि श्री सीताराम यचूरी ने साफ कर दिया
कि उन्होने किसी ऐसे पत्र पर हस्ताक्षर नही किए है और उनके हस्ताक्षर फर्जी है । निश्चित
तौर पर यहाँ कानून को अपनी काम करना चाहिए ।
किसी भी स्वाभिमानी व्यक्ति
को अमेरिकी वीज़ा के लिए इन परस्थितयों मे प्रयास भी नहीं करना चाहिए । इसलिए नरेंद्र
मोदी को चाहिए कि वह स्वयं घोषणा करे कि अमेरिकी वीज़ा की उन्हे कोई दरकार नहीं है ।
उनके दल के अध्यक्ष को भी अमेरिका यात्रा के दौरान इस तरह की मांग से बचना चाहिए था।
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Sunday, 14 July 2013
हिमालय से भी ऊंचा और राजनीति से भी नीचा
उत्तराखंड मे प्रकृति के रौद्र रूप ने जो
विनाश लीला की है उसकी कल्पना करना भी संभव नहीं है । कितने लोग प्रभावित हुए और
कितने लोग मारे गए इसकी सही जानकारी उपलब्ध नही है । उत्तराखंड विधान सभाध्यक्ष के
अनुसार मरने वालों की संख्या 10 हजार से भी अधिक है किसी ने कहा ये संख्या इससे भी
अधिक है। रुद्र प्रयाग व केदारनाथ गए जिले के अधिकारियों ने इस संख्या को बहुत
अधिक होने का अनुमान बताया। किन्तु प्रदेश
के मुख्यमंत्री ने कहा है कि मरने वालों की सही संख्या का कभी पता नहीं चल सकेगा ।
शायद सबसे विश्वसनीय और सही बात यही है । प्रकृति के इस तांडव से चमत्कारिक रूप से
बच कर आए प्रत्यक्ष दर्शियों और बचाव अभियान मे शामिल लोगो खासतौर से
सैन्यकर्मियों से हुई बातचीत से घटना की
विकरालता और बीभत्सता का अंदाजा लगाया जा सकता है। निसंदेह यह इस सदी की सबसे
बड़ी मानवीय और प्राकृतिक आपदाओं मे से एक है।
16 जून
की रात और 17 जून 2013 को सुबह हुए इस हादसे के बाद बचाव अभियान शुरू होने मे
कतिपय कारणों से काफी समय लगा। एक कारण तो है दुर्गम पहाड़ी इलाको की भौगोलिक
संरचना, संचार माध्यम और संपर्क
मार्गों का कटना। दूसरा सबसे बड़ा कारण है इस तरह की आपदाओं से निपटने की कोई अच्छी
तैयारी न होना । तीसरा कारण है विभिन्न
एजेंसियों मे तात्कालिक बेहतर तालमेल न होना । कहने की आवश्यकता नहीं कि अगर बचाव
अभियान जल्दी और नियोजित तरीके से शुरू हुआ होता तो और भी बहुतों की जान बचायी जा
सकती थी । लेकिन जैसी हमारी राजनैतिक व्यबस्था है,
और जैसी हमारे देश की अवस्था है, उसमे गंभीर और दूरगामी
मसलो पर गंभीरता न होना आश्चर्य जनक नहीं,
अवश्यंभावी है । इसलिए इस तरह की विभीषिकाओं से पूरी सक्षमता और तैयारियों से
निपटने, जान माल के होने वाले
नुकशान को न्यूनतम करने और तुरन्त अधारभूत
ढांचा खड़ा कर पुनर्वास करने की क्षमता हम कब तक विकसित कर पाएंगे,
कहा नहीं जा सकता।
उत्तराखंड
त्रासदी मे सेना और इंडो तिब्बत बोर्डर पुलिस के जवानो ने बहुत ही बहदुरी,
जवांजी और कर्तव्य परायणता से लोगो का बचाव किया। घायलो,
बुजुर्ग व्यक्तियों और बच्चों को अपनी पीठ,
कंधे पर बैठा कर निकाला । एक घटना का जिक्र आवश्यक है,
लकड़ी और रस्सियों के एक अस्थायी पुल पर,
जिसमे तख्ते कम होने के कारण बड़े बड़े रिक्त स्थान थे और जिससे होकर निकलने पर पानी
मे गिर जाने का खतरा था, कई जवान पंक्ति
बद्ध होकर पेट के बल लेट गए और उनकी पीठ पर पैर रखते हुए आपदा मे फंसे हुए लोग
निकले । ये दृश्य जो भी देखता वह यह जरूर कहता कि ये देश के सच्चे सपूत हैं । इनको
देख कर मन मे श्रद्धा उत्पन्न होती है । ऐसे एक नहीं अनेक वाकये है जहां इन जवानो
ने अपनी जान की बाजी लगा कर मुशीबत मे फंसे लोगो को निकाला । धन्य है ऐसे जवान और ऐसी
सेना । ऐसे बहुत से और लोग है जो स्वयं इस आपदा मे फंसे थे फिर भी उन्होने तमाम
अजनबियों की जान अपनी जान जोखिम मे डाल कर बचाई। ये सभी इस देवभूमि मे देवदूत के
रूप मे थे । इनकी इंसानियत, पराक्रम,
लगन और साहस ने इनका कद हिमालय से भी ऊंचा कर दिया है ।
केदारनाथ
धाम मे जो बादल फटे वो पानी के नहीं,
कहर और मुशीबतो के बादल थे। जिसके साथ दुखों के पहाड़ भी टूट टूट कर गिर रहे थे।
नदियां ऐसे उफन पड़ी जैसे अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए,
मानो प्रकृति अपने खिलाफ किए गए मानवीय अन्याय और शोषण का भरपूर बदला लेना चाह रही
थी । जीवन मे एक एक पैसा जोड़ कर जुटाये गए गृहस्थी के सामान जल-प्रवाह मे बह गए और
अटूट मेहनत से बनाए भवन ताश के पत्तों की
तरह ढह गए । हर ओर मौत और विनाश का भयंकर तांडव हुआ । तबाही के इस मंजर मे जो भी सैलाव
के सामने पड़ा नष्ट हो गया । इनमे स्थानीय लोग और दूसरे प्रदेशों से आए श्रद्धालु
दोनों थे । लाशों के ढेर मे दबे रहकर जब कोई जिंदा बच गया तो उसे अपनी ज़िंदगी पर
विश्वास ही नहीं हुआ। शायद इसे ही कहते है ज़िंदगी और मौत के बीच का बहुत छोटा
फासला । जो बचे थे या जो बच सकते थे उन्हे बचा लिया गया है और इसीके साथ बचाव
अभियान समाप्त कर दिया गया है । मृतको के बारे मे एक अधिकारी का बयान “ जहां जिंदा
लोगों की गिनती नही वहाँ लाशों की गिनती कौन करेगा ” सत्य किन्तु हैरान करने वाला
था । बहुत लाशों का सामूहिक दाह संस्कार कर दिया गया है लेकिन दुर्भाग्य से अभी भी
बहुत ऐसे है जिनकी लाशे निकाली नही जा सकी है क्योंकि ये मलबे के ढेर मे दबी है और
मलबा हटाने के लिए वैज्ञानिकों से परामर्श किया जाएगा । लेकिन आज भी हजारो लोग
अपनों के आने का इंतजार कर रहे है। बहुत सी माँए जिनके बेटे केदारनाथ धाम रोजी रोटी या
अपनी पढ़ायी के लिए कमाई करने गए थे,
उनके वापस आने का इंतजार कर रही है। बहुत सी पत्नियाँ अपने पतियों का,
बच्चे अपने माता पिता या भाई बहिनों का इंतजार कर रहे हैं । बहुत से लोग तशवीरें
हाथ मे लिए देहरादून, हरिद्वार या
ऋषिकेश मे घूम घूम कर अपनों को ढूड रहे हैं और इस बात का जबाब भी कि ऐसे कैसे इस
आपदा को यों ही गुजर जाने दिया गया ?
पता नहीं उनका इंतजार कब खत्म होगा ?
होगा भी या नहीं।
इस
आपदा मे एक काम बहुत अच्छी तरह से हुआ और वह है राजनैतिक रोटियाँ सेंकने का । कई दलों
ने राहत सामिग्री से भरे ट्रकों को झंडी दिखा कर रवाना किया जैसे ये आपदा मे नही
बल्कि देशाटन के लिए जा रहें हों । ऐसे कई ट्रक डीजल न होने से कई दिन रास्ते मे ही खड़े रहे और कई ट्रको की खाद्य समिग्री तो
पहुँचते पहुँचते खराब हो गई थी । काफी समिग्री
बांटने मे हुयी देरी के कारण पड़े पड़े खराब हो गई थी। भला हो स्वयं सेवी संगठनों का
जिन्होने सबसे पहले जो कुछ भी उनसे हो सका पहुंचाया। गुजरात के मुख्य मंत्री
नरेंद्र मोदी भी प्रभावित इलाको के दौरे पर पहुंचे। उनके हेलेकोप्टर को प्रभावित इलाकों
मे उतरने नही दिया गया तो उन्होने हवाई
सर्वेक्षण ही किया । मोदी जाएँ और चर्चा न हो,
सियासत न हो, हो ही नही सकता । 18
हजार गुजरातियों को बचाने की मीडिया मे खबर आने के बाद तो तूफान खड़ा हो गया ।
उन्हे तरह तरह की उपाधियों से विभूषित किया गया । लेकिन इसका प्रभाव ये हुआ कि
लगभग हर बड़े दल के नेताओं ने हवाई सर्वेक्षण किए और हर दल मे अपने अपने प्रदेश के
लोगो के ले जाने की होड लग गई । हरिद्वार और देहरादून मे बसो की भीड़ हो गई । चूंकि
मोदी ने चार्टड हवाई जहाज से भी देहरादून से अहमदाबाद तक ले जाने की अपने प्रदेश के
प्रभावितों के लिए व्यवस्था की थी,
कई दल इस अभियान मे कूद पड़े और अपने अपने प्रदेश वासियो के लिए हवाई जहाज की व्यवस्था
कर ली । कई दलों के शीर्ष नेता देहरादून हवाई अड्डे पर यात्रियों को अपने अपने जहाज मे बैठाने के लिए झगड़ते देखे गए जैसा
कि आमतौर पर टैंपो चालको के बीच सवारिया भरने को लेकर होता है । कई सियासी दल आपसी
वाक्युद्ध मे इतना उलझे कि सभी समाचार पत्रो और टीवी पर छा गए और जो समय और जगह आपदा प्रबंधन पर विश्लेषण के लिए उपयोग होता,
सूचनाए देने के लिए स्तेमाल होता, बलात छिन गया। इससे
बचाव अभियान प्रभावित नही हुआ होगा,
नही माना जा सकता । बहुत से लोग इस बात का जबाब भी ढूड रहे है कि राजनीति का निम्नतम स्तर क्या हो सकता है ?
प्रकृति की इस महाविनाश लीला के बीच मानवीय समवेदनाओं
की कसौटी पर एक और कृत्य इंसानियत को कलंकित कर गया। खबर है कि कुछ लोगो ने अस्सीम
संकट की इस घड़ी मे घायलो को लूटा । महिलाओ से अभद्रता की,
उनके गहने जेवर लूट लिए और उनकी इज्जत पर हमला किया। कुछ घायल जिन्हे सहायता की सख्त
जरूरत थी, इस छीना झपटी मे बच नही
सके । लाशो से अंगूठिया और बालिया निकालने के लिए इन दानवीय लुटेरों ने उनके कान और
अंगुलियाँ काट ली । ऐसे कई लोगो को सेना के जवानो ने स्वर्ण आभूषणो और बहुत नकदी के
साथ पकड़ा। मानवीय मूल्यो की इतनी गिरावट ओफ !
शायद ये अपने अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुँच गयी है,
राजनीति से भी नीचे ।
सही
अर्थों मे राहत और बचाव का कार्य अभी खत्म नहीं हुआ है। उजड़े हुए लोगो को बसाना,
उन्हे जीविकोपार्जन मे सक्षम बनाना,
बहुत चुनौती पूर्ण कार्य है। बहुत से बच्चे अनाथ हो गए है उन्हे पढ़ाना,
लिखाना और समाज की मुख्यधारा मे शामिल करना,
बहुत बड़ा लक्ष्य है । लेकिन इसे सभी को मिलकर पूरा करना है । केवल सरकारें इस कार्य
को पूरा नहीं कर सकती । इसमे सभी के सहयोग की आवश्यकता है । आइये हम सब मिलकर इस कार्य
मे सहयोग करें, पुनीत कार्य समझ कर नहीं
बल्कि अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर ॥****॥
- शिव प्रकाश मिश्रा
Saturday, 13 July 2013
कुत्ते की मौत पर वाक युद्ध
किसी
इंसान के मौत पर युद्ध हो सकता है और कुत्ते की मौत पर भी । लेकिन अगर कुत्ते की
मौत काल्पनिक हो तो भी युद्ध हो सकता है, ये आप पहले बार देख रहे
होंगे । दरअसल नरेंद्र मोदी ने लंदन की एक पत्रिका को दिये इंटरव्यू मे ये कहा की
अगर आप गाड़ी मे पीछे बैठे हों और आपकी गाड़ी से कोई कुत्ते का पिल्ला कुचल जाए तो भी
दुख होता है। बस फिर क्या था राजनैतिक गलियारों मे और लगभग सभी टीवी चैनलो पर वाक
युद्ध शुरू हो गया। तरह तरह के भावार्थ निहातार्थ निकले जाने लगे ।
मोदी
का इशारा शायद यह है की गैर इरादतन, अनजाने मे बिना उनकी किसी
प्रत्यक्ष गलती के गुजरात दंगों मे मारे
गए लोगो की मौत का उन्हे दुख है। कहा तो ये भी जाता है की चीटी के मरने का भी दुख
होता है। अच्छा होता की इस तरह के उदाहरण से वे बचते। तब शायद उनके विरोधी
इंटरव्यू की किसी और बात का बतंगड़ बना देते जैसा की उनके हिन्दू राष्ट्रवाद के
बयान को लेकर मचाया जा रहा है। मुझे लगता है की उनके फालोवेर्स मे विरोधी दल के भी
काफी नेता है जो उनकी हर बात और हर गतिविधि
को बड़े ध्यान से देखते है और अपने दल के अनुकूल तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त
करते है । इसमे उनके वोट बैंक का
तुष्टीकरण सदैव छिपा रहता है। इसका सीधा लाभ भारतीय जनता पार्टी को ये हो रहा है
कि मोदी की हर बात मीडिया मे बड़े ज़ोर शोर से छा जाती है और विरोधी नेताओं की कुंठा
इस तरह सामने आती है कि उनकी बौद्धिकता और स्वभावगत असलियत जनता के सामने आ जाती
है । लेकिन इससे दो समुदायों के बीच की खाई और चौड़ी होती जा रही है । शायद यही ये
नेता चाहते हैं क्योकि इससे वोट बैंक का ध्रुवीकरण होगा और एक समुदाय विशेष के वोट
थोक मे उसे मिलेंगे। अगर मोदी चाहें भी तो सीधे अफसोस भी जाहिर नहीं कर सकते
क्योकि तब तथाकथित धर्म निरपेक्ष दल इसे उनकी दंगों की स्वीकारोक्ति के रूप मे
प्रचारित करेंगे ।
मुस्लिम
समुदाय को भी ये सोचना होगा कि उनका हित कहाँ और कैसे होगा और उन दल और नेताओं से
दूर रहना होगा जो उन्हे सिर्फ वोट बैंक बनाए रखना चाहते हैं ।
शिव
प्रकाश मिश्रा
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