Thursday, 3 October 2013

बच्चे बड़े हो गए


सुबह उगने के साथ ही शुरू हो जाती है,

चहचाहट घोसलें में,

जो मेरे बगीचे में लगा है,

और जिसे मैं देखता हूँ ,

खिड़की से झांक कर हर रोज,

शाम को फिर बढ़ जाती है

हलचल चहचहाने की,

आहट भी नहीं होती है,

रात गहराने की ,

हर दिन ऐसे ही शुरू होता है,

और हर रात भी, इसी तरह,

पता नहीं, इनके पास हैं

कितनी खुशियाँ ?

कितने अनमोल पल ?

कितनी तरंगे ?

कितनी उमंगें ?

उर्जा के पात्र जैसे अक्षय हो गए हैं,

हर चीज को मानो पंख लग गए हैं,

एक जोड़ा चिड़ियों का और

उनके दो छोटे बच्चे,

यही सब उनका पूरा संसार बन गए हैं .

और देतें हैं अविरल, अतुल अहसास ,

जैसे श्रृष्टि का सृजन और क्रमिक विकाश ,

हर तरफ हरियाली, मनमोहक हवाएं

स्वच्छ खुला नीला आकाश,

अबोध विस्मय, तार्किक तन्मय ,

संयुक्त आल्हाद और अति विश्वास,

स्वयं का ,

प्रकृति का,

या परमात्मा का,

पता नहीं, पर  

न गर्मी का गम, न चिंता सर्दी की,

न बर्षा का भय, न आशंका अनहोनी की,

व्यस्त और मस्त हरदम,

बच्चों के साथ,

जैसे बच्चे ही जीवन है,

उनका,

बच्चों का पालन पोषण,

हर पल ध्यान रखना

बड़े से बड़ा करना,

लक्ष्य है उनके जीवन का,

सोना, जागना, खेलना, कूदना,

उनके साथ,

खुश रखना,

खुश रहना साथ साथ॰

उनके बचपन में समाहित करना,

अपना जीवन,

पुनर्परिभाषित और पुनर्निर्धारित करना,

खुद का बचपन,

कितने ही मौसम आये, गए,

और

समय के बादल बरस कर चले गए,

खिड़की से बाहर बगीचे में,

अब, जब मै झांकता हूँ,

तो पाता हूँ,

घोंसले हैं, कई, आज भी,

और चहचाहट भी,

कुछ उसी तरह,

पर सब कुछ सामान्य नहीं है,

उस घोंसले में,

जिसे मै लम्बे समय से देखता आया हूँ,

जिसकी चहचाहट शामिल थी,

मेरी दिनचर्या में,

जिसकी यादें आज भी रची बसीं है,

मेरे अंतर्मन में,

ऐसा लगता है,

जैसे मै स्वयं अभिन्न हिस्सा हूँ,

उनके जीवन का,

और उस घोंसले का,

या वे सब और वह घोंसला,

हिस्सा हैं,

मेरे जीवन का.

आज भी जीवित है,

चिड़ियों का वह प्रौढ़ जोड़ा,

और रहता है,

उसी  घोंसले में,

जहाँ अब चहचाहट नहीं है,

कोई हलचल भी नहीं है,  

चलते, फिरते,

उठते बैठते,

झांकता हूँ मैं,

बार बार उसी घोंसले में,

जहाँ अब बच्चे नहीं दिखते॰

प्रश्न वाचक निगाहों से पूंछता हूँ मैं,

जब इस जोड़े से,

जो मिलते हैं यहाँ वहां बैठे हुए

बहुत शान्त और उदास से,

उनकी खामोश निगाहें, बड़ी बेचैनी से कहती हैं

 “बच्चे बड़े हो गए",

   "बहुत दूर हो गए",   

   "अब तो उनकी चहचाहट भी यहाँ नहीं आती है

बहुत विचलित होता हूँ

और सोचता हूँ,

मैं,  

जैसे कल की ही बात है,

सारा घटनाक्रम आत्मसात है  

पर समय को भी कोई संभाल सका है भला ?

पता ही नहीं चला.....

कब ?

बच्चे बड़े हो गए.
**************************

-       -    शिव प्रकाश मिश्र
 
***********************
 

Wednesday, 2 October 2013

कानून, न्याय और व्यबस्था


चारा घोटाले के सभी आरोपियों पर आरोप साबित होने के बाद जेल भेजा जाना जारी है . न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध राजनैतिक लोगो को बचने के लिए जो अध्यादेश राष्ट्रपति के पास भेजा गया था उस पर विपक्षी दलों के विरोध और राष्ट्रपति की अनिच्छा के कारण हस्ताक्षर तो नहीं हुए बल्कि राहुल गांधी के विरोध के कारण सरकार इसे वापस लेने जा रही है. इसके लिए राहुल गांधी की तारीफ की जानी चाहिए और ये स्थिति निश्चित रूप से इन राजनेताओं की संसद की सदस्यता ख़त्म करेगी और इन्हें अगले कुछ सालों तक चुनाव में भाग लेने से भी  रोकेगी.  

१७ साल पहले हुए चारा घोटाले की राशि लगभग ४० करोड़ रुपये थी. तमाम बाधाओं को पार करते हुए सीबीआई की विशेष अदालत ने अपने फैसले में इन तमाम ४० से अधिक बड़े नेताओं और पूर्व अधिकारियो को सजा सुनायी जिसे सीबीआई अपनी बहुत बड़ी सफलता मान रही है. अभी इस फैसले को हाई कोर्ट और जरूरत पड़ने पर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जायेगी और उसमे भी काफी समय लगेगा . यानी निचली अदालत के फैसले में १७ साल का समय.... जो किसी भी दृष्टि से  कम नहीं कहा जा सकता और ये समय तब लगा जब ये हाई प्रोफाइल केस था, मीडिया की पैनी निगाह थी और राजनैतिक दबाव भी था और सबसे बड़ी बात कि सीबीआई की ये जाँच  हाई कोर्ट की निगरानी में हुई. वर्ना या तो जाँच ही नहीं हुयी होती या फिर जाँच का नतीजा कुछ और होता. सोचिये अगर ये मुकदमा आम आदमी का होता तो अभी भी तारीख पर तारीख मिल रही होती . ये है हमारे देश की न्याय व्यवस्था. इन १७ सालों में देश और प्रदेशों और लोगों की जिन्दगियों में बहुत कुछ बदल गया है . अविभाजित बिहार आज दो राज्यों बिहार और झारखण्ड में बदल गया है . बच्चे बड़े हो गये हैं और बड़े बूढ़े हो गये हैं और शायद कुछ बूढ़े अब इस दुनियां में नहीं रहे. जिनके (जानवरों) लिए इन रुपयों से चारे की व्यबस्था होनी थी पता नहीं उनका क्या हुआ ? घोटाले की राशि मुद्रा स्फीति की दर या बैंक की  व्याज दर के हिसाब से लगभग ५०० करोड़ रुपये आज की तारीख में होती हैं. ये छोटी राशि नहीं है और इस की वसूली कैसे होगी ? कहाँ से होगी ? शायद नहीं हो पायेगी.  अगर हो भी जाये तो कल्पना करिए कि किसी व्यक्ति ने कोई गबन किया और मुकदमेबाजी शुरू हो गयी और १७ साल बाद यदि पैसा वापस भी करना पड़ता है तो ये तो बहुत फायदे का सौदा हुआ जिसकी तुलना में सजा क्या महत्व रखती है ?

एक और बरिष्ठ नेता जी को अदालत ने मेडिकल प्रवेश में घोटाले के कारण ४ साल की सजा सुनायी है और उन्हें जेल भेज दिया गया है. ये ५ रुपये में भरपेट खाना खाने वाले राजनेता है जो संभवता अब जेल में सामान्य कैदियों को मिलने वाले २५-३० रुपये के खाने पर गुजारा करने के बजाय वीआईपी जेल में रहेंगे. इस मुकाम तक पहुँचने में २३ साल का समय लगा. संभवता: इस प्रकरण में सर्वोच्च न्यायलय के निर्देशानुशार अपनी संसद सदस्यता गंवाने वाले वह पहले व्यक्ति होंगे .    
 
कानून के हाँथ बहुत लम्बे होते है, ऐसा कहा जाता है पर बड़ी बड़ी हस्तियों तक पहुँचने में ये हाथ इतना विलम्ब क्यों करते है ? कानून को तो इस ढंग से अपना काम करना चाहिए कि भारत के इन भाग्य विधाताओं के मामले में त्वरित फैसला हो जो न सिर्फ कानून के साथ खिलवाड़ करने वालों के लिए उदहारण बने बल्कि देश में कानून का शासन स्थापित करने में मददगार हो.ये कैसा न्याय है? इतने वर्षो तक न जाने कितने बार इन्होने चुनाव लड़ा ? न जाने कितने बार माननीय रहे ? न जाने कितने पदों पर रहे ? न जाने कितने बार कितने लोगो को नैतिकता और कुशल प्रशासन का पाठ पढाया ? और न जाने क्या क्या किया ? लेकिन संतोष की बात है कि कानून ने अपना काम तो किया .

आज जरूरत इस बात की है कि निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायलय तक न्यायाधीशों के संख्या में जितना संभव हो सके बढ़ोत्तरी की जाय और हर मुक़दमे की समयाविध निश्चित की जाय. छोटे छोटे मुकदमों को स्थानीय / पंचायत स्तर पर निपटारे की व्यबस्था की जाये. झूठे मुक़दमे दायर करने के विरुद्ध सख्त कानून बनाये जाय . महत्वपूर्ण मुकदमों की सुनवाई के लिए फ़ास्ट ट्रेक व्यबस्था लागू की जाय . सबसे बड़ी बात ...कानून और प्रक्रिया को समय की जरूरत के हिसाब से सरलीकृत किया जाय ताकि इसमें जहाँ तक संभव हो व्यक्ति अपना पक्ष खुद प्रस्तुत कर सके और समय की भी बचत हो सके. एक बात और ..सर्वोच्च न्यायलय को और शक्तिमान बनाया जाय ताकि कुछ बिशिष्ट लोग आम आदमी का न्याय न  हड़प सके और न्याय होता रहे , न्याय की आश बनी रहे.

 
********************************

      - शिव प्रकाश मिश्र

*********************************

Monday, 30 September 2013

लोक तंत्र की लाज


कन्नड़ के लब्ध प्रतिष्ठित लेखक श्री यूं आर अनंतमूर्ति  ने ये कह कर सब को सन्न कर दिया कि यदि श्री नरेन्द्र मोदी हिंदुस्तान के प्रधान मंत्री बन जाते हैं तो वह देश छोड़ देंगे. भाजपा का इस पर नाराज होना स्वाभाविक है पर अन्य दलों ने इसे मोदी के विरुद्ध एक और हथियार के रूप में स्तेमाल किया . अमर्त्यसेन के बाद वह दूसरे बड़े लेखक है जिन्होंने मोदी के खिलाफ इतनी सख्त टिप्पडी की है .

माना जाता है कि लेखक, कलाकार और लोकतंत्र समर्थक हमेशा जनता की आवाज होते हैं और जनता की आवाज लोक तंत्र में निहित होती है. ये कैसे लेखक है जो जनता की आवाज के साथ नहीं हैं ?

यूं आर अनंतमूर्ति  ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता हैं और उन्हें कई साहित्यिक पुरस्कार भी मिल चुके है . मूलत: समाजवादी अनंतमूर्ति कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ चुके है और कर्नाटक विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में मतदान की अपील कर चुके हैं . इसमें कुछ भी हर्ज़ नहीं आखिर लोकतान्त्रिक देश में प्रत्येक नागरिक राजनैतिक प्रक्रिया का हिस्सा होता है . वह किसी न किसी दल को मत देगा और किसी न किसी दल के साथ उसकी सहानुभूति हो सकती है . वह किसी न किसी दल का हिस्सा भी हो सकता है . लेकिन क्या हम इतने असहनशील और अलोकतांत्रिक हो जायेंगे कि अगर ऐसा दल सत्ता में आ जायेगा जिसको हम पसंद नहीं करते तो हम देश छोड़ देंगे . ऐसा कहना और ऐसा करना अधिसंख्य जनता का विरोध करना है और उनकी भावनाओ का असम्मान करना है और ये घोर अलोकतांत्रिक है .

ऐसा माने जाने के कोई कारण नहीं हैं कि श्री अनंतमूर्ति इतने अलोकतांत्रिक हो सकते हैं . मेरा मानना है कि शायद उन्होंने मुहाबरे के तौर पर ऐसा कहा होगा जिसका मतलब अपने परिचितों और शुभचिंतकों से ये कहना होगा कि उन्हें चाहिए कि वे श्री नरेन्द्र मोदी का भरसक विरोध करें और सुनिश्चित करे कि वे प्रधान मंत्री न बन पायें . फिर भी श्री अनंतमूर्ति को चाहिए कि वे स्थिति स्पष्ट करे ताकि लोकतंत्र की गरिमा बनी रहे.

                   **********************

शिव प्रकाश मिश्र   

Tuesday, 20 August 2013

शर्म क्यों हमे ? मगर नहीं आती ......

14वें  विश्व एथलेटिक चैंपियनशिप का आयोजन मास्को, रूस मे 10 से 18 अगस्त 2013 तक किया गया । भारत को पिछले आयोजनों की तरह इस बार भी कोई मेडल नहीं मिल सका है जिसका उसे कोई गम नहीं । इसमे शायद आपको भी कोई आश्चर्य नहीं होगा ।  लेकिन मेडल तालिका देखने के बाद हममे  से  ज्यादातर  के सीने मे बेचैनी  हो सकती  है और हो सकता है गुस्से मे आपकी मुट्ठियाँ भिच जाए क्योंकि पदक तालिका मे ऐसे बहुत से देश मिल जाएंगे जिनकी भारत से अन्यथा कोई तुलना नही हो सकती । रूस का प्रथम, अमेरिका का दूसरे स्थान पर रहना किसी को भी अचंभित नही करेगा  लेकिन जमाइका (6 गोल्ड), कीन्या (5 गोल्ड), इथोपिया (3 गोल्ड), युगांडा (1 गोल्ड), त्रिनीडाड एंड टोबागों (1 गोल्ड), इवोरी कोस्ट(2 सिल्वर) और नाइजीरिया (1 सिल्वर और 1 कांस्य ) को पदक मिलना और भारत का इन छोटे छोटे अभाव ग्रस्त देशों से अत्यधिक पीछे रहना अवसाद पैदा करने वाला है । इथोपिया आज भी अकाल और भुखमरी के लिए जाना जाता है । ये शर्म का विषय है 125 करोड़ की जनसंख्या वाले देश के लिए और देश के नीति नियंताओं के लिए। आज़ादी के 66 वर्ष बाद भी खेलो की इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है ? खेलों की राजनीति या राजनीति का खेल ?
 भारत जैसे देशो की शर्म कम करने के लिए  विश्व एथलेटिक चैंपियनशिप के आयाजकों ने इस बार एक नुस्खा निकाला जिसके द्वारा सभी देशों के लिए एक क्रमांक तालिका बनाई गई जिससे ये पता चल सके कि प्रदर्शन के आधार पर  किस देश का कौन सा स्थान रहा । इस नुस्खे के अनुसार किसी प्रतिस्पर्धा मे गोल्ड मेडल को 8 अंक, सिल्वर को 7, कांस्य को 6, चौथे स्थान को 5, पांचवे स्थान को 4, छटवे को 3, सातवें को 2 और आठवें को 1 अंक देने का प्रविधान किया गया। यानी केवल आठवे स्थान तक के लिए अंको का प्रविधान किया गया । इस तरह से प्राप्त कुल अंको के आधार पर सभी देशो की सूची बनाई गई । किन्तु, भारत चूंकि सिर्फ एक प्रतिस्पर्धा मे सातवें स्थान पर रहा था ( अन्य मे आठवें के बहुत बाद रहा) इसलिए उसे केवल 2 अंक प्राप्त हो सके और उसका स्थान 53वां रहा । अमेरिका के 282 अंको के मुक़ाबले विश्व की इस तथाकथित संभावित तीसरी महाशक्ति भारत के केवल 2 अंक ।       
    एक और बात अचंभित करने वाली रही इस प्रतियोगिता का किसी भी समाचार पत्र और किसी भी टी वी चैनल पर कोई खास समाचार नही रहा और इसलिए अपनी दुर्दशा पर न किसी ने आँसू बहाए और न ही किसी को शर्म आने का सुअवसर प्राप्त हुआ । यहाँ  तक कि भारत के एथलेटिक की अधिकृत वेब साइट पर आज तक 13 अगस्त तक का विवरण है और इसमे कहा गया है कि कई खिलाड़ियों ने अपने प्रदर्शन मे काफी सुधार किया है ।
    क्या होगा इस देश का जहां खिलाड़ी खेल  के लिए नहीं सरकारी नौकरी पाने के लिए खेलते है। स्वाभाविक है बिना भाई भतीजावाद के यदि चयन हो जाय तो बहुत बड़ी बात होगी।ये सभी को इस हद तक मालूम है कि कोई भी समझदार व्यक्ति भरसक कोशिश करता है कि बच्चे खेलों पर समय खराब न करें।
     खिलाड़ियो को समुचित और मूलभूत सुविधाए नहीं और उस पर सारे खेल संघों पर राजनैतिक व्यक्तियों का कब्जा । कैसा है राजनीति और खेलों का घाल मेल ..... पता नहीं खेलों मे राजनीति है  या  राजनीति मे खेल। (for more detail please log on to http://lucknowtribune.blogspot.com ; http://mishrasp.blogspot.com http://lucknowcentral.blogspot.com )

                ***********************

     शिव प्रकाश मिश्रा

Wednesday, 14 August 2013

अब तो कानून भी अपना काम नहीं कर पा रहा है

    सुनते सुनते यह बात रट  गयी  है कि कानून अपना काम करता है और राजनीतिज्ञ तो हमेशा  जब कभी फंस जाते है तो कहते हैं  कि कानून अपना काम करेगा।  यद्यपि कानून के रास्ते में राजनीतिज्ञों द्वारा ही हजार बाधायें खडी  की जाती रहीं हैं ताकि कानून   सही तरह से अपना काम न कर पा और अगर करे भी तो जितनी देर हो सके उतनी देर की जाय।  इसका नतीजा ये होता है  क़ि साधारण व्यक्ति को अपने लिए न्याय की आशा लगभग धूमिल लागने लगती है   धीरे धीरे लोग न्यायालयों मे लगने वाले अत्यधिक समय के कारण न्याय की गुहार करने से कतराते है । फिर भी सर्वोच्च न्यायालय देश के लिए आज के हालत मे एकमात्र आशा  की किरण है । समान्यतया राजनैतिक दल सर्वोच्च न्यायालय का सम्मान करते रहे है। न्यायालय के निर्णय बहुत दूरगामी प्रभावों वाले होते हैं । सर्वोच्च न्यायालय की संविधान की रक्षा की ज़िम्मेदारी भी है इसलिए अनेक मौकों पर न्यायालय ने सरकार द्वारा बनाए गए असंवैधानिक क़ानूनों पर रोक भी लगाई है । पिछले कुछ समय से ज़्यादातर राजनैतिक दल संकोच छोड़ सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयो के खिलाफ खुल कर बोलने लगे है और ये प्रथा बढ़ती ही जा रही है ।
 
      अब  एक और चलन चल पड़ा है  जिसमे सारे राजनैतिक दल सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध खड़े हो जाते है । ऐसे मामले या तो सारे राजनैतिक दलों को प्रभवित करते है या फिर इनके वोट बैंक को प्रभावित करते है या ये दल अपने विरोध से अपने वोट बैंक का तुष्टीकरण करना चाहते है। स्पष्ट है कि सारी राजनीति वोट बैंक की है । देश के लिए कौन सोचता है ये सिर्फ सोचने की बात रह गई है। संसद मे किसी भी मुद्दे पर साथ न खड़े होने वाले  धुर विरोधी दल ऐसे कुछ मामलों मे “हम साथ साथ हैं” की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। ऐसे मुद्दों पर ये दल संविधान संशोधन के लिए भी तैयार हो जाते है जिसके लिए दो तिहाई बहुमत की जरूरत होती है । ये स्थिति हिंदुस्तान के लिए बिलकुल भी अच्छी नहीं है और लोकतन्त्र के लिए तो कतई नहीं ।
 
      भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान मे विशेषज्ञ डाक्टरों मे आरक्षण की व्यवस्था न किए जाने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर राजनैतिक दलों ने बड़ी तीखी  प्रतिक्रिया व्यक्ति की है और सारे दलों ने निर्णय लिया है कि सरकार सर्वोच्च न्यायालय मे पुनरीक्षण याचिका दाखिल करे और इस निर्णय पर पुनर्विचार करे । अगर सर्वोच्च न्यायालय इस पर पुनर्विचार न करे तो संविधान संशोधन के जरिये इसे निरस्त कर दिया जाय ।
 
       दूसरा मामला है सूचना के अधिकार से जुड़ा हुआ है । तमाम अनावश्यक आवेदनों और उस पर होने वाले व्यर्थ पत्राचार के वावजूद ये बहुत ही लोकप्रिय और प्रभावी कानून है । इससे सरकारी कामकाज मे पारदर्शिता को बढ़ावा मिला है और लोकसेवक इससे भय खाते है। धीरे धीरे इसकी स्वीकार्यता जनता और संबंधित विभागो मे बहुत  अधिक हो गई है । आज के दिन ये सबसे लोकप्रिय क़ानूनों मे से एक है । किन्तु राजनैतिक दलों पर इसे लागू किए जाने के मुद्दे पर सारे दल एक हो गए है और शीघ्र ही संसद एक कानून पारित करने वाला है जिससे ये कानून राजनैतिक दलों पर लागू नही हो सकेगा ।
 
      तीसरा मामला है सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दो साल की सजा पाये व्यक्तियों और जेल से चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया जाना। इस निर्णय के खिलाफ भी सारे दल लामबंद है और इसे भी निरस्त करने की फिराक मे है । क्या 125 करोड़ से अधिक की आबादी वाले इस देश मे संसद के लिए 545 साफ सुथरे व्यक्ति नाही मिल सकते । कितने दुख की बात है कि सारे राजनैतिक दल आम जनता के हित के किसी भी मुद्दे पर एकसाथ नही खड़े होते पर ऐसे मुद्दे पर सब साथ साथ है।
       लोकतन्त्र मे सारे दलो का ऐसे मुद्दो पर एक साथ खड़े होना खतरे की घंटी है । सारे राजनैतिक दलों और आम जनता को इस पर गंभीरता पूर्वक  विचार करना चाहिए ।कम से कम इस पर तो जरूर विचार करना चाहिए कि क्या सर्वोच्च न्यायालय का इस तरह के निर्णय देने के पीछे कोई स्वार्थ है ? नहीं । स्वार्थ नही हो सकता और स्वार्थ नही है यह एक साधारण मनुष्य तुरंत समझ जाएगा । निस्वार्थ भाव से किए गए निर्णय कभी गलत नहीं होते । ऐसे निर्णयों का सम्मान किया जाना चाहिए और ऐसे निर्णय लेने वालों का सम्मान किया जाना चाहिए । अगर हिंदुस्तान को बचाना  है तो हमें ऐसा करना सीखना होगा और ऐसा करना होगा । स्वार्थ तो राजनैतिक दलों का हो सकता है राजनैतिक  चस्मे का हो सकता है । राजनैतिक दलों को भी निस्वार्थ भाव से सोचना चाहिए तभी ये देश बच सकेगा और बचाया जा सकेगा ।
***************
शिव प्रकाश मिश्रा 

 

 
 
 

Saturday, 10 August 2013

पुंछ के शहीदो को नमन


सरहद ने फिर  जख्म खाये हैं,
देश के पाँच वीर पुंछ से शहीद होकर आए हैं,
“ पाकिस्तान और आतंकवादियों की कायराना हरकत जैसे ”
कई बयान एक साथ आए है,
राजनेताओं से,
भारत मे यह एक चलन है ,
पिछले काफी समय से ,
जिसे हर विदेशी और आतंकवादी आक्रमण के बाद,
राज नेता करते आए है ।
इतिहास गवाह है,
आक्रमणकारी कभी कायर नही कहलाते ।  
कायर तो वो कहलाते हैं
जो आक्रमण का मुंह तोड़ जबाब नहीं दे पाते ।
अगर ये आक्रमण कायरता है,
तो पराक्रम  क्या है ?
पाकिस्तान  का बचाव करना,
खामोश रहना,
या समर्पण करना,
अगर यही सच है,
तो ये पराक्रम की उल्टी पराकाष्ठा है,
और  बेहद गैर जिम्मेदाराना है,
सच तो ये है कि ऐसे हमलों को
कायराना कहना ही कायराना है।
क्या हिंदुस्तान इतना
कमजोर है ?
असहाय है ?
लाचार है ?
पर दुनियाँ को संदेश तो यही गया है
कि यह देश बहुत बदहाल हो गया है ।   
पूरा विश्व जनता है कि
पाक है नापाक आक्रमणकारी,
और भारत है उतना ही कुख्यात वार्ताकारी ।
आखिर वार्ता क्यों हो और किसलिए ?
अगर हो ... तो सिर्फ इसलिए
कि बस .... बहुत हो गया
अब बात नहीं हो सकती
सीमा पर एक भी और हरकत
बर्दाश्त नहीं हो सकती,
अब पराक्रम दिखाने का वक्त आ गया है
दुश्मन को करारा जबाब देने का वक्त आ गया है  
पता नहीं ये वोटो की राजनीति है,
या शान्ति दूत दिखने का जोश,
वे सीमा पर जवानों के सिर भी
कलम कर ले जाते है
हम फिर भी रहते है खामोश,
इससे ज्यादा शर्मनाक स्थिति
और कुछ नहीं हो सकती है,
पर  भारत की राजनीति
सत्ता के लिए कुछ भी कर सकती है,    
एक राजनेता कहते है कि
लोग सेना मे शहीद होने के लिए ही जाते है,
और इसी की तनख्वाह पाते है,
संवेदन शून्य इन नेताओं के बेटे,
न तो सेना मे जाते है,
और न ही शहीद होते है,
वे चाहे देश मे पढे या विदेश मे ,
इंजीनियर हो या डाक्टर ,
बनते हैं सिर्फ वोटो के सौदागर,
और लाशों पर पैर रख कर,  
सत्ता की सीढिया चढ जाते हैं ,
मंत्री हो जाते है शासक बन जाते हैं,
आँसुओ से भीगी शहीदो की दहलीजों को
और अधिक मर्माहत कर जाते हैं ।
गुस्से मे उबलते
और वेवसी की आग मे जलते
शहीदो के इन परिवारो को सांत्वना और
सम्मान चाहिए ,
समूचे देश को इन परिवारों के आँसुओ का
और
इन शहीदो के बलिदानों का
हिसाब चाहिए,
ताकि ये बलिदान व्यर्थ न जाय  
और कभी कमी न हो जाय
देश पर जान देने वालों की,
और शहीदो के सम्मान की
रक्षा करने वालों की ।

    *******

शिव प्रकाश मिश्रा