सुबह उगने के साथ ही शुरू हो जाती है,
चहचाहट घोसलें में,
जो मेरे बगीचे में लगा है,
और जिसे मैं देखता हूँ ,
खिड़की से झांक कर हर रोज,
शाम को फिर बढ़ जाती है
हलचल चहचहाने की,
आहट भी नहीं होती है,
रात गहराने की ,
हर दिन ऐसे ही शुरू होता है,
और हर रात भी, इसी तरह,
पता नहीं, इनके पास हैं
कितनी खुशियाँ ?
कितने अनमोल पल ?
कितनी तरंगे ?
कितनी उमंगें ?
उर्जा के पात्र जैसे अक्षय हो गए हैं,
हर चीज को मानो पंख लग गए हैं,
एक जोड़ा चिड़ियों का और
उनके दो छोटे बच्चे,
यही सब उनका पूरा संसार बन गए हैं .
और देतें हैं अविरल, अतुल अहसास ,
जैसे श्रृष्टि का सृजन और क्रमिक विकाश ,
हर तरफ हरियाली, मनमोहक हवाएं
स्वच्छ खुला नीला आकाश,
अबोध विस्मय, तार्किक तन्मय ,
संयुक्त आल्हाद और अति विश्वास,
स्वयं का ,
प्रकृति का,
या परमात्मा का,
पता नहीं, पर
न गर्मी का गम, न चिंता सर्दी की,
न बर्षा का भय, न आशंका अनहोनी की,
व्यस्त और मस्त हरदम,
बच्चों के साथ,
जैसे बच्चे ही जीवन है,
उनका,
बच्चों का पालन पोषण,
हर पल ध्यान रखना
बड़े से बड़ा करना,
लक्ष्य है उनके जीवन का,
सोना, जागना, खेलना, कूदना,
उनके साथ,
खुश रखना,
खुश रहना साथ साथ॰
उनके बचपन में समाहित करना,
अपना जीवन,
पुनर्परिभाषित और पुनर्निर्धारित करना,
खुद का बचपन,
कितने ही मौसम आये, गए,
और
समय के बादल बरस कर चले गए,
खिड़की से बाहर बगीचे में,
अब, जब मै झांकता हूँ,
तो पाता हूँ,
घोंसले हैं, कई, आज भी,
और चहचाहट भी,
कुछ उसी तरह,
पर सब कुछ सामान्य नहीं है,
उस घोंसले में,
जिसे मै लम्बे समय से देखता आया हूँ,
जिसकी चहचाहट शामिल थी,
मेरी दिनचर्या में,
जिसकी यादें आज भी रची बसीं है,
मेरे अंतर्मन में,
ऐसा लगता है,
जैसे मै स्वयं अभिन्न हिस्सा हूँ,
उनके जीवन का,
और उस घोंसले का,
या वे सब और वह घोंसला,
हिस्सा हैं,
मेरे जीवन का.
आज भी जीवित है,
चिड़ियों का वह प्रौढ़ जोड़ा,
और रहता है,
उसी घोंसले में,
जहाँ अब चहचाहट नहीं है,
कोई हलचल भी नहीं है,
चलते, फिरते,
उठते बैठते,
झांकता हूँ मैं,
बार बार उसी घोंसले में,
जहाँ अब बच्चे नहीं दिखते॰
प्रश्न वाचक निगाहों से पूंछता हूँ मैं,
जब इस जोड़े से,
जो मिलते हैं यहाँ वहां बैठे हुए
बहुत शान्त और उदास से,
उनकी खामोश निगाहें, बड़ी बेचैनी से कहती हैं
“बच्चे बड़े हो गए",
"बहुत दूर हो गए",
"अब तो उनकी चहचाहट भी यहाँ नहीं आती है ”
बहुत विचलित होता हूँ,
और सोचता हूँ,
मैं,
जैसे कल की ही बात है,
सारा घटनाक्रम आत्मसात है,
पर समय को भी कोई संभाल सका है भला ?
पता ही नहीं चला.....
कब ?
बच्चे बड़े हो गए.
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- - शिव प्रकाश मिश्र